कौतूहल एक धुआँ है
उपजता है तुम्हारी दृष्टि से,
मैं उसमें अपनी आँखे मुचमुचाता
प्रति क्षण प्रवृत्त होता हूँ
आगत-अनागत के रहस लोक में
समय की अनिश्चित पदावली
मेरी चेतना का राग-रंग हेर डालती है
जो निःशेष है वह ध्वनि का सत्य है ,
वह सत्य जो निर्विकल्प है,
गूढ़ है, पर सहज ही अभिव्यक्त है ।
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