युगपुरुष !
तुम सदैव भविष्योन्मुख हो,
मनुष्यत्व की सार्थकता के प्रतीक पुरुष हो,
तुम घोषणा हो
मनुष्य के भीतर छिपे देवत्व के
और तुम राष्ट्र की
भाव-प्रसारिणी प्रवृत्तियों का विस्तरण हो ।
अहिंसा के चितेरे बापू !
है क्या तुम्हारी अहिंसा –
जीवन का समादृत-स्वीकार ही न !
जीवनानुभूति का विस्तार ही न !
समादर-भाव की प्रतिष्ठा ही न मुक्त करती है
जीवन के अवरुद्ध-स्रोत को ।
गीता की धर्म-संस्थापना और है क्या
सिवाय जीवन के प्रति समादर की प्रतिष्ठा के !
निर्विघ्न सुंदरता की सत्य-मूर्ति !
तुम सजग हो ’परिवर्तन ’ के प्रति ।
परिवर्तन का मतलब –
तल से नयी सभ्यता में दिखता नया मनुष्य ।
नयी सभ्यता : लोभ-मोह निःशेष मनस्थिति
नयी सभ्यता : प्रेमोत्सुक उर, सजल भाव चिति
नयी सभ्यता : प्रकृति प्रेम, निश्छलता औ’ करुणा का सुन्दर योग
नयी सभ्यता : सहज-सचेत-सजग अनुभव का मणिकांचन संयोग ।
हे सार्वत्रिक, हे सर्वमान्य, हे सर्वांतर-स्थित !
नमन् अनिर्वच !
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कवि प्रदीप का लिखा यह गीत मुझे सदैव प्रिय है –