मन सिहर गया, चित्त अस्थिर
आगत के भय की धारणायें,
कहीं उल्लास के दिन और रात झर न जायें
फिर उलाहना –
क्या यह प्रेम प्रहसन ?
रही विक्षिप्त
अंतः-बाह्य के निरीक्षण में व्यस्त,
नहीं दिखी त्रुटिपूर्णा मैं खुद को,
फिर क्षोभ –
नायक या खल-नायक ?
छोड़ गये सारंगी-सा, जिसके
टूट गये हों तार हृदय-से
फिर उपालंभ –
क्या मिली कोई लज्जाहीना ?
अभिव्यक्त देंह से, इंद्रजाल की मलिका
तुम्हें क्या ? यहाँ अनमनी, अश्रु-मुखी
कैसे रहती है ?
फिर अश्रु-अर्घ्य –
“पुकारती रही, किन्तु किंचित शून्य में!
तड़पती हूक, अन्तर का भूचाल,
देंह की धरित्रि का कँपना – देख न सके “
फिर समर्पण –
“पता है -यह तुम्हारी खेचरी मुद्रा!
यदि सहन होगा विरह-दारुण,
सुलभ संयोग होगा स्फूर्तिकर !”
“समझ आया – प्रलय के दृश्य में भी
सृजन हँसता है, विहँसता है ।
फिर यह रहा स्वीकार –
सम्मुख शब्द-मौन, विश्वस्त-हृदय
अधरों में सम्पुटित अधर,
समाधि में वक्षस्थलों पर स्थित चेतनस्थ कर ।
चित्र : First People से साभार