कुछ चरित्र हैं जो बार-बार दस्तक देते हैं, हर वक्त सजग खड़े होते हैं मानवता की चेतना का संस्कार करने हेतु। पुराने पन्नों में अनेकों बार अनेकों तरह से उद्धृत होकर पुनः-पुनः नवीन ढंग से लिखे जाने को प्रेरित करते हैं। इनकी अमित आभा धरती को आलोकित करती है, और ज्ञान का प्रदीप उसी से सम्पन्न होकर युगों-युगों तक मानवता का कल्याण करता रहता है। अगली कुछ प्रविष्टियाँ ऐसे ही महानतम चरित्रों का पुनः-स्मरण हैं। प्रस्तुत है करुणावतार बुद्ध की पहली कड़ी।
करुणावतार बुद्ध
(प्रथम दृश्य )
(प्रातःकाल की बेला। महल में राजा और रानी चिन्तित मुद्रा में।)
शुद्धोधन: सौभाग्यवती! कल अरुणोदय की बेला थी। अभी अलसाई आखों से नींद विदा हुई नहीं थी। मैं अपलक निहार रहा था भरी-पूरी देहयष्टि वाले अपने राजदुलारे को। प्रासाद के एक एकांत कोने में वह अनमना बुदबुदाते हुए घूम रहा था। मुखमण्डल बता रहा था, वह सारी रात सोया नहीं है। उसके विद्युम से अरुण अधरों से कढ़े अप्रासंगिक बोल को मैं सुन रहा था-
“नभ से उतरो कल्याणी किरणों ! हमारा देय शंखजल स्वीकारो। हमारे शेष प्रश्न को अशेष कर दो। लौटो ओ सम्यक दिन । लौटो, हमारी मृत चेतनाओं को धूपाभिषित कर दो। जी चुका मैं भूत। अशेष करना है हमें यह आज का संघर्ष ताकि अनागत विश्व का यश बन जाये। हम देहजीवी नहीं दृष्टि-जीवी हैं। मेरी उदासी भरी जीवन की उषा को उत्सवगर्भा बना दो।”
रानी: हे राजाधिराज! क्यों कह रहा था सिद्धार्थ यह सब? यह अबूझ पहेली कैसी? कौन-सी उदासी? कौन-सा उत्सव? कौन-सा शेष प्रश्न? कैसा सम्यक दिन? क्या देव शंखजल?
शुद्धोधन: सुमुखि ! यही तो अपनी आकुलता है। कुछ समझ में नहीं आ रहा है, उस पुत्र का क्या है उद्वेग? कलेजे पर हाथ रख कर वह कह रहा था-
“देश का, न काल का-मैं किसी का ताबेदार नहीं। जिन्हें तुम अपना समझते हो, जिन्हें तुम अपनी पहचान बताते हो, जिन्हें तुम प्रतीकों की तरह उठाये-उठाये देश और काल में सदियों से चल रहे हो, क्या तुम इन्हें उठाकर एक किनारे नहीं रख सकते? चलो, मेरी प्रार्थना! अब सृष्टि-सुख की भाषा बनकर चलो! मुझे अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा, लौटना ही होगा।”
रानी: और, और विरदश्रेष्ठ! और कुछ भी उच्चरित किया उसके अधरों ने?
शुद्धोधन: हाँ, हाँ भद्रशीले ! बोले जा रहा था –
“आज से मैं विद्रोही हूँ, भयंकर विद्रोही। सुख के विरुद्ध, दुख के विरुद्ध विद्रोह। विद्रोह , अब यही मेरा मान है, यही मेरा अरमान है। हे कोमल पुष्पों! अब तुम्हारा सौरभ और सौन्दर्य मुझे बंदी नहीं बना सकता। हे पिंजरे के शुक-मैना! अब तुम्हारे गान मुझे भूल-भुलैयों में नहीं फँसा सकते। हे पवन! अब त्रिविद प्रवाह की मुझे जरा भी परवाह नहीं। हे अगरु सुगंध! तेरी मादकता अब मुझे मुग्ध नहीं कर सकेगी। हे सूर्य! तेरा असह्य ताप मुझे तेरे सामने नतमस्तक नहीं कर सकेगा। अरे स्वार्थवादी मनुष्यों! देखना, तुम्हारी स्वार्थांधता और तुम्हारा पाखंड मेरे वज्र हाथों से चूर-चूर हो जायेगा।”
सुन्दरी! उसके अज्ञात शरीर कम्पन, हृदय के उच्छलन और मन की तड़पन को मैं अदृश्य बैठा हुआ निर्ममता से झेल रहा हूँ।
(रानी सिसकते हुए राजा से लिपट जाती है ।)
रानी: राजन! विधाता कौन-सा दिन दिखायेगा? मैं अपने लाल को अपने गालों से सटा लूँगी। उसका विषाद बोझिल मुख बार-बार चूमूँगी। उसे दुलराऊंगी, सहलाऊंगी, बहलाऊंगी। माँ की ममता का धागा समेटकर राग की रसरी में उसे बाँधकर , यह पगली माँ उसके प्रस्थान के पथ पर पाषाण शिला-सी बिछ जायेगी।
(स्वयं अपनी डबडबायी आँखों को पोंछकर संयत होता राजा )
राजा: मेरी माया! क्या-क्या नहीं सुना मैंने? क्या कह रहा था वह मेरी आँखों की पुतली- “छोटे-छोटे सुखों की खोज में तूँ भटकता फिरता है। अनन्त आनन्द का स्वप्न मेरा विनोद है। रागासक्ति से तूँ जकड़ा हुआ है। निर्ममता मेरे जीवन की शक्ति है। तेरा काम अनन्त काल तक भटकना है, मेरा लक्ष्य अनन्त में जा मिलना है। खोखले संसार! तेरा और मेरा क्या संग है!”
रानी: स्वामी! मैं उसकी पीर की तासीर बचपन से ही तलाशने लगी थी, पर उसे जान पायी नहीं, समझ पायी नहीं। अपनी आत्मा के उस सुन्दर प्रतिबिम्ब में मैं ढूँढ़ती रह गयी उसके निस्रब्ध अंतःकरण में व्याकुलता की वह आग, अधीरता की वह ज्वाला, विरह की वह पीड़ा। जब वह एक अबोध बालक था, तभी से एकान्त में बैठकर एक नीरव संगीत का आनन्द लूटने के लिये अपनी माँ की गोद से उठ-उठकर भाग जाया करता था। प्रेम ने उसके हृदय को आनन्दमय बना दिया था। विरह ने उसके जीवन को करुणामय बना दिया था। उसके मुखमंडल की मुद्रा, उसके नयनों की सजलता और उसकी मौनता के जादू का चित्र इस घड़ी मेरी आँखों के आगे मूर्तिमान हो गया है। अब कुछ करो न प्रजावत्सल! कि वह गृहासक्त हो, राज-पाट सम्हाल ले।
राजा: तन्वी! मैं सोचता था और सन्तुष्ट हो रहा था कि मेरे हृदय की अग्नि अब शान्त हो गयी है। विश्व की सर्वश्रेष्ठ अनिंद्य सुन्दरी यशोधरा से पाणिग्रहण करा कर उसे रस-पिपासु मिलिंद बनाना चाहा, किन्तु मेरा वैसा सोचना आज व्यर्थ सिद्ध हुआ। सिद्धार्थ चंपक वन का चंचरीक निकला। वह बिना राग के निराला रमता राम हो गया। उसे एक नयी चूमने वाली उमंग, रोमांचित कर देने वाली धारा, पागल बना देने वाली खुशी डँवाडोल कर रही है। सोचा था , यशोधरा की जीवनदायी स्मृति, उसके सुधामय प्रेम का आस्वादन, उसके जीवन का रस- उसे एक नये रंग में रँग डालेगा। उसके अंग में उमंग भरेगी। आँखों में हँसी उतरेगी, शब्दों में मुग्धता आयेगी। किन्तु मेरा मोहभंग होता चला जा रहा है। उसको देखकर तो मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे वह राजपुत्र ही नहीं है। सदा का भिखारी है, वेदना से विह्वल है।
रानी: ओह! अब स्मृति में ताजी हो रही है वही बेला आर्य! जब बालकेलि में आकर अपने हाँथों से मेरी आँखें बन्द कर इठलाने लगता और कहता- माँ, वह दरवाजा खोल दो! मुझे डर लग रहा है। मेरे चारों तरफ का जो दृश्य है विषाद मिश्रित हँसी का है। नैराश्यपूर्ण आशा का है। मैं फूल की सुगंध में छिप जाना चाहता हूँ, पर प्रवेश के लिये द्वार ही नहीं सूझता। सुबह की संगीत-धारा में अपने को बहा देना चाहता हूँ, पर अंततः अपने को स्तंभित पाता हूँ। अनन्त आकाश में विचरण करने के लिये उड़ना चाहता हूँ, पर मेरे हाँथ सिर्फ हवा को चीरकर रह जाते हैं। वह प्रवेश द्वार खोल दो ना माँ! “
राजा: क्या करूँ गुणमयी! वह सबों का दुलारा होकर भी उदास है। वह अपनी समस्त आकांक्षाओं को लेकर भी वैरागी है, एक कोमल आनन रखते हुए भी कठोर है। राजधानी सजायी थी उसको रिझाने के लिये। दुख, पीड़ा, रोग, वैराग्य, जरा, व्याधि, मरण, विलाप सबको रोक रखने का आदेश दिया था, कि ये राजकुमार के दृष्टिपथ में न आयें। केवल मोद और प्रसन्नता बरसे।
रानी ! सूर्य अब मध्याह्न व्योम की ओर अग्रसर हो रहे हैं। सारथी आता ही होगा। उसे अभी बुलवाता हूँ। राजकुमार की इस समय क्या स्थिति है, इसे जानने की इच्छा हो रही है।
(सारथी को बुलाने का आदेश)
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