चलो, आओ !
झूम गाओ
प्रीति के सौरभ भरे स्वर गुनगुनाओ
हट गया है शिशिर का परिधान
वसंत के उषाकाल में
पुलकित अंग-अंग संयुत
झूमती हैं टहनियाँ रसाल की
और नाचता है निर्झर
गिरि शिखरों से उतर-उतर
कहता है – तरुणाई क्या फिर आनी है !
झाग भरी बरसाती नदी-से
उद्धत हैं झूमते प्रसून हर्ष-बाग-बाग बाग के
कोयल मदमाती कुहुक रही
भौंरा आनन्द गीत गा रहा
प्रिय आ देखो ! नभ-विस्तर में
अनिल गंध लुटा, गा रहा –
तरुणाई क्या फिर आनी है !
खग-कलरव गूँज रहा
आओ ! प्राण इनमें लहरा दें
चू रहा अमर-आसव वासंती
आओ ! गटगट पी जायें
चिर-संग-भाव का आश्रय लेकर
परिणय का सागर उफनाता है
गाता है – तरुणाई क्या फिर आनी है !
आकर बैठो, रख दो अधरों पर
इस रसाल तरु के नीचे, रस भरे अधर
काँपे हिय, कंपित तन औ’
रात्रि अँधेरी रहे खड़ी फिर सहज मौन
बिछ गये फूल, पैरों को सहलाते तिनके
आकाश चितेरा ढाँक छुपा हमको बहकाता
कहता जाता है -तरुणाई क्या फिर आनी है !
भर लो उर में सुरभि प्रेम-मद
मौन विलक्षण से खेलो
मंदस्मित का मोहपाश फेंको
मेरी हथेलियों को अपने हाँथों में ले लो
और फिर छेड़ो तान – निशा के स्वागत हित
बिना गीत के कहाँ कर्म यह संपादित,
स्वर मुखरित हो – तरुणाई क्या फिर आनी है !
चित्र साभार : गूगल