करुणावतार बुद्ध- 1, 2, 3, 4, 5,6,7, 8 के बाद प्रस्तुत है नौवीं कड़ी…
करुणावतार बुद्ध
(ब्राह्मण उन्हें नहीं छोड़ते, घेर लेते हैं। सिद्धार्थ आगत चेष्टा स्फूर्त उठ जाते हैं।)
सिद्धार्थ: क्या भवितव्य है? ये वैदिक विशद अनुष्ठान, यह कुटिल कर्मकाण्डीय वितंडावाद- आह! मुझे कहीं चैन नहीं! कहाँ पथ है, कौन-सा पाथेय है!
ब्राह्मण: तरुण तापस! तुम्हें हमारी बात मृषा लग रही है? ब्राह्मणों का विरद विस्मृत है तुम्हें? देखो, ब्राह्मण का संकल्प बड़ा वजनदार होता है। मेरे साथ प्रारब्ध और पुरुषार्थ के खेल खेलो!
(सिद्धार्थ उस समाज से विदा लेते हैं। रात्रि का पूर्वार्ध है। रात्रि के अंधेरे की परवाह नहीं करते हुए चले जा रहे हैं। कठोर श्रम से शरीर श्लथ है। फिर भी चलते जा रहे हैं। एक अनिर्वच उत्साह भर गया है मन में ! कई रातें, कई दिन वन-वन भटकते, गिरि गह्वरों की खाक छानते बीतते हैं। लक्ष्य अप्राप्त है। द्वंद्व अभी भी गया नहीं है..)
सिद्धार्थ: किस कंदरा से क्लेश-निवृत्ति का रसायन खींच लाऊँ! किस अटवी से आनंद का अमृत प्राप्त करूँ! किस उपत्यका से अनासक्ति का श्रोत पाऊँ! किस नभ से निर्वाण की विद्युत लेखा का आहरण करूँ! किस सिंधु से सम्यक बोध का संधान पाऊँ! किस शैल माला से शांति का खजाना तलाशूँ! प्यासे मृग की तरह दौड़ रहा हूँ। मृगशावक सदृश सुपुत्र छोड़ा, मृगाक्षी जीवनसंगिनी छोड़ी, अमरावती-सी कपिलवस्तु छूटी, पुर छूटा, प्रियजन छूटे- सब छूटे! छूटा नहीं तो सिद्धार्थ का भटकाव। बंद तो आँखें हैं, पर अमंद कोलाहल का आवर्त जागृत है। क्या करूँ-
“इतो न किंचित, परतो न किंचित
यतो यतो यामि ततो न किंचित ..।”
प्रातः होने को है! रात्रि पिशाचिनी-सी थी! प्राची का लाल मुँह जैसे रक्त-स्नात महाकाल का है। क्षय की विजय पताका लहरा रही है। अक्षय का अवगुंठन हटाने को व्याकुल हूँ। पागल हूँ, पागल ही हूँ मैं। मेरा न गुरु, न प्रकाश, न पंथ!
(सिद्धार्थ व्यथित हैं, तभी भोर के प्रकाश में एक सरोवर दिखता है। स्नान करने को प्रवृत्त होते हैं। देखते हैं, एक गिलहरी बार-बार जल के पास जाती, उसमें अपनी पूँछ डुबाती और फिर पूँछ निकालकर बाहर रेत पर झटक देती है। झील को सुखाने का प्रयास है यह उसका , पूछने पर पता लगता है गिलहरी से। सोचने लगते हैं….)
सिद्धार्थ: जब यह तुच्छ नगण्य जीव अपने मनोबल से नहीं डिग रही तो मैं कैसा साधक कि क्लांत-श्लथ हो रहा हूँ! मर जाऊँगा, पर बिना बोध के विराम नहीं लूँगा! चलो गौतम- “तपतु”!
तपस्विनी: सिद्धार्थ! ’मा विरम’, “तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नयता”। तपो, तपो, तपो! मैं जानती हूँ तुम्हारा अभिप्रेत्य! उन्तीस वर्ष की उम्र में ’यश की धारा’ (यशोधरा) को छोड़ कर आये हो, अब ’धरा का यश’ तुम्हारी बाट जोह रहा है।
सिद्धार्थ: हे अदभुत रस की उद्घोषिका! हर आह में टपकी हुई मेरी विमला सलिल बिन्दु ही तो नहीं हो तुम?
तपस्विनी: क्यों घबरा गये! सुनो, अपना दीपक आप ही बनना है तुमको! तिमिर का व्यूह भेदना है। कैसा विराम, कैसा विश्राम, कैसी क्लांति, कैसी भ्रांति! तुम्हारे समान बस तुम्ही हो। पहले ही दिन जिस दिन तुमने जीवन का पहला प्रभात देखा, हर्ष से सर्वप्रथम ताली बजाने वाली मैं ही थी। मैं इस तट पर तो हूँ ही, उस तट पर भी तुमसे फिर भेंट होगी। तुम्हारा मूलाधार हूँ, तुम्हारा सहस्रार हूँ। मैं तुम्हारी इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा हूँ। मैं कौन हूँ, मैं कौन नहीं हूँ, मत पूछो..!
सिद्धार्थ: तपस्विनी ने तो हर दुखती रग पर अपनी अँगुली रख दी। चलो मेरे प्राण! तपो, तपो! गौतम अब पीछे नहीं मुड़ेगा।