विकल हूँ, पहचान लूँ मैं
कौन-सी वह पीर है !
अभीं आया नहीं होता वसन्त
तभीं उजाड़ क्यों हो जाती है वनस्थली,
क्यों हवा किसी नन्दन-वन का प्रिय-परिमल
बाँटती फिरती है गली-गली,
और
किसी सपनीली रात में क्यों
कोयल चीख-चीख उठती है…सोती नहीं!
क्यों झूम-झूम उर्मिल पयोधि
चूमता है सदैव ही चन्द्र किरण
पर निज अंतराल-गत सलिल सम्पदा
लुटा देता है दिनमणि को,
और
क्यों दीप-लौ पर पतंग-बालिका
धोती है अपना कलेवर !
वेदना कैसी कि विकल हो चकोर
चुँगता है पावक का अंगारा,
क्यों चन्द्र अहर्निश फिरता है,
अपलक निहारता ध्रुव तारा,
और
नित्य ही नीरव आकाश से
क्यों निशा सुन्दरी
अपनी आँखों के मोती ढरका देती है !
विकल हूँ, पहचान लूं मैं
कौन-सी वह पीर है ?
कि लघु पादप भी ललक
लहराता है नभ -चुम्बन हित,
और धरती भी स-यत्न
अपनी संपुटित सम्पदा
भाँति-भाँति खोती है !
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