निज रूपाकाश में मधुरिम प्रभात को पुष्पायित करती,
हरसिंगार के कुहसिल फूल-सी,
प्रणय-पर्व की मुग्ध कथा-सी बैठी थीं तुम !
अपने लुब्ध नयनों से ढाँक कर ताक रहा था तुम्हें !
औचक ही तुमने मुझे देख लिया ! अकारण ही सहसा आ गयी लाज तुम्हें !
वसन के समान ही छा गया रंग का आवरण !
यह आवरण किस लिए ?
विभोर मेरी वासना को थकने मत दो !
मेरी लालसा को भटकने दो तुम्हारे दृष्टि-निकुंज में !
तुम्हारी आँखों के उदार गगन का आश्रय चाहिए मेरे वासना सघन नेत्रों को !
मैं कुछ पगला गया हूँ ! मत्त-सा !
खिंचता हूँ इधर-उधर सोच की तरह !
प्यास है अनोखी एक !
ज्योत्सना को शरीर में प्रवहित करने की सोचता हूँ,
अवश होना चाहता हूँ अपनी ही रागिनी छेड़,
निथरना चाहता हूँ सुख-सा दुख में,
झरना चाहता हूँ मोह-सा प्रेम में !
अपने हृदय कुसुम की सिहरती पंखुड़ी पर आ पड़ी ओस की बूँद-सा सिहराओ मुझे
कि प्रेम का अनन्त आकाश उसमें अपना मुख निहारे
और निहाल हुआ जाय !
यह मत सोचना कि अवधि कितनी ?
उतनी ही जितनी पलको की हाँथों में थमे आँसू की उम्र !
पलकों की हाँथों से सरका कि उसमें झिलमिलाती आकृति क्षण भर में खोयी !
अनुभूति ने काम कर दिया अपना !