प्रस्तुत हैं शैलबाला शतक के चार और कवित्त! करुणामयी जगत जननी के चरणों में प्रणत निवेदन हैं यह चार कवित्त! शतक में शुरुआत के आठ कवित्त काली के रौद्र रूप का साक्षात दृश्य उपस्थित करते हैं। पिछली चार प्रविष्टियाँ सम्मुख हो चुकी हैं आपके। शैलबाला-शतक के प्रारंभिक चौबीस छंद कवित्त शैली में हैं। शेष सवैया छंद में रचे गए हैं। क्रमशः प्रस्तुतियाँ शैलनन्दिनी के अनगिन स्वरूप उद्घाटित करेंगी। आज पाँचवीं प्रस्तुति। पिछली प्रविष्टियाँ:एक, दो, तीन, चार। ऑडियो: एक, दो, तीन, चार
शैलबाला शतक: कवित्त 17-20
तोहरै शक्ति भक्ति कै भरौसा हौ प्रधान अम्ब
आउर कुछ रखल हौ न राह में न राही में
देखतै हऊ भूँजि भूँजि भरता निकाल लेत
पंकिल कै काम औंटि मोह की कराही में
हॉंफत तनय पर अपने अँचरा कै बयार करा
रखले रहा करुना कलपद्रुम की छॉंहीं में
केसे मॅुह बाईं हम कहॉं कहॉं धाईं अब
दोहाई दुर्गा माई कै उठावा निज बाहीं में॥१७॥
अम्मा अन्नपूरना अपरना तोहिं पंकिल कै
बीना बना बादक बना राग बना रागिनी
आखिर महॅंतारी बिना बिपदा के निवारी
हम तै दुखिया सुत कहतै रहब आपन जठरागिनी
पंकिल के मति की मलिकाइन बना गउरा माई
चाहे बनावा बड़भागिनि अभागिनी
मत मुँह फेरा अम्ब एको बेर हेरा
जुगल चरनन में बसेरा दा महेश अरधांगिनी॥१८॥
कै कै बेर अम्मा खेल कइके देख लेहले हऊ
केतना भोग भोगली हम अपने बल बूती में
लालची लबार बेसुमार सुख चाहीं पर
सरबस चढ़वली नाहिं शंकर शिवदूती में
सुनीला तूं देखतै भर में कायाकलप कइ देलू
वैभव बिखेर देलू भोला की भभूती में
अक्किल लगावा पंकिल तोहरे बिना विकल रहै
माथा मोर टिकल रहै माता तोरि जूती में॥१९॥
सुख कै सुख हऊ सकल आनॅंद कै आनॅंद हऊ
तैंतिस कोटि सुर में सरबोत्तम गिनन जालू तूँ
बेटवा के बैरिन बदे बज्जर अस कठोर हऊ
सुत कै दुख देखि मोमनइयॉं पिघल जालू तूँ
पंकिल निकम्मा आखिर हउवैं अम्मा तोहरै पूत
काहें के बचाय के निगाह निकल जालू तूँ
चेहरा मोर फीका अब लगावा नेह टीका तनि
बताय दा तरीका जासे मइया पिघल जालू तूँ॥२०॥
काठिन्य निवारण
भूँजि भूँजि– भुन-भुन कर; औंटि– अत्यधिक उबालना; निवारी– निवारण करना; गउरा माई- गौरी माँ; कै कै बेर– न जाने कितनी बार; लबार- बहुत बोलने वाला; सरबस- सर्वस्व; मोमनइयॉं- मोम की भाँति ।