केवट प्रसंग रामायण के अत्यन्त सुन्दर प्रसंगों में से एक है, खूब लुभाता है मुझे। करुण प्रसंगों के अतिरेक में यह प्रसंग बरबस ही स्नेहनहास का अद्भुत स्वरूप लेकर खड़ा होता है। विचारता हूँ राम की परिस्थिति को, कैकयी की निर्दयता अपना काम कर चुकी है, पिता से बिछड़ने का दुःख अभी असह्य ही है। सब कितना करुण है। तभी लटपटा प्रेम ले उपस्थित होता है केवट। कितना जरूरी है इस केवट का प्रवेश दृश्यावली में! इस करुण समय में प्रेम की ऐसी ही अभिव्यक्ति तो वांछित थी जो विभोर भी करे और स्नेहनहास से हँसाये भी। राम के जीवन की घटनाओं का संतुलन है यह, बाबा तुलसी की महानतम काव्य-कथा में राम के वनगमन की करुण कथा में ही समुआया ’ड्रॉमेटिक रिलीफ’ है यह केवट।
केवट प्रसंग का सौन्दर्य
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केवट की चातुरी अब समझ आयी है। यह सब पग-प्रच्छालन की चाल है। चरण-धूलि में ही अपने जीवन की सार्थकता की पराकाष्ठा देखने वाला अनन्य भक्त है केवट। सजल कर रहा है अपनी विदग्धता को। सारे तर्क ही तिरोहित हैं, सारी आशंकाएँ ही निर्मूल हैं- यदि चरण-रज मिले। केवट पी ले चरणामृत, बस इतनी-सी साध है।
“सुनि केवट के बचन प्रेम लपेटे अटपटे।
विहँसे करुणाअयन चितय जानकी लषण तन॥”
“काठे के कठवत में चरन पखारै रामा
चरन पखारि केवट पीयैं चरन अमरित हो”
(अति आनंद उमगि अनुरागा….)
वह तो पा चुका है- “नाथ आज मैं काह न पावा।” यह क्या स्वर्ण-मुद्रिका दे रहे हो नाथ! भवसागर में अटकी पड़ी नाव के खेवइया हो राम! तुमसे कैसी उतराई। केवट भाव-विह्वल है, सजल है। फिर भी विदग्ध है-
“भवसागर से परवाँ उतारा गंगा माई हो ।“
मलहवा बाबा ने गाया: वीडियो
यह वीडियो तो बस यूट्यूब पर अपलोड करने के लिए एकाध चित्र लगाकर बना दिया गया है। ऑडियो भी बहुत अच्छा नहीं था, क्योंकि रिकॉर्डिंग यंत्र ही नहीं था बेहतर कोई उस वक़्त। तेज वॉल्यूम कर काम चलाईये। अनुभूति अपना काम करेगी ही।
गीत का मूल पाठ
सुरसरि तीरवाँ खड़े है दुनो भईया रामा / अवधपुरी के रहवइया दुनो भईया रामा
सुरसरि पार के जवइया दुनो भइया रामा / केवट-केवट राम पुकारैं रामा।
भोरे में नइया डोलल आवैला केवटवा हो / भोरे में तीरवाँ ………
बिना पैर धोये नाथ नइया ना चढ़इबै हो / बिना पैर धोये…..।
काठे के कठवत में चरन पखारै रामा / चरन पखारि केवट पीयैं चरन अमरित हो
अगवाँ जे बइठैलें राम-लछमण सीता जी / पीछवाँ ले बइठैं गंगा माई की जल फइली
भोरे में तीरवाँ ………..।
खेवत खेवत केवट घटवा में गइलैं रामा / देवे लगलैं राम अपने हाथे कै मुंदरवा हो
ना लेबे राम तोहार हाथे कै मुंदरवा हो / देवे लगलें राम जब डाली भर सोनवां हो
ना लेबे राम तोहार डाली भर सोनवां हो।
नदिया में नारि के खेवइया पड़ि रामजी हो / तूँ त हउवा भवसागर के तरवइया रामा
केवट से केवट नाहिं लेवैं अब खेवइया हो / गहिरी बा नदिया देखा नइया बा पुरानी रामा
खेलन वाला अलख अनारी रामा।
बुढ़िया मलाहिन अरज करत बा हो / भवसागर से परवाँ उतारा गंगा माई हो
सुरसरि तीरवाँ खड़े हैं दुनो भइया रामा।
एक तरफ केवट की सजगता और दूसरी ओर राम के प्रति अनन्य भक्ति और प्रेम की अनूप भावना। वह छलक-छलक पड़ता है अपनी भावनाओं में। तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्य जी ने रच कर गाया है- आवा हो जग नाव के खेवइया/ राघव तुम बिन सूनी मोरी नइया। जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्य जी की रचना पर भावपूर्ण अभिनय का एक वीडियो भी मिला मुझे, अद्भुत आनन्ददायी।