सती सावित्री का यह विशिष्ट चरित्र कालजयी है। नारी की अटूट व दृढ़ सामर्थ्य का अप्रतिम उदाहरण है। प्रस्तुत नाट्य प्रविष्टि वस्तुतः नारी की महानता का आदर है, सहज स्वीकार है। इस प्रविष्टि में सत्यवान के प्राण लेकर यमराज प्रस्थान करना चाह रहे हैं। सावित्री अत्यन्त दुःख में है, पर विवेकवान है, प्रज्ञावान है। वह यमराज के साथ हो लेती है, यम विचलित हो उठते हैं। यम-सावित्री संवाद का अनूप प्रभाव प्रकट करती है यह प्रविष्टि। सावित्री-1, सावित्री-2सावित्री-3, सावित्री-4 एवं सावित्री-5 से आगे।

यम-सावित्री संवाद: पंचम दृश्य

(जंगल का दृश्य। सत्यवान के हाथ में कुल्हाड़ी, कन्धे पर गमछा, सावित्री के हाथ में टोकरी और पानी का बर्तन)

सत्यवान: सुखदायिनी! टोकरियों में पहले फल भर लिया जाय, फिर समिधा काटता हूँ। (वृक्ष पर चढ़ता है और लकड़ियाँ काट के गिराने लगता है।)

सावित्री: जीवनधन! आप के सभी अभिशापों का अवसान हो, आपके शरीर से स्वेद बह रहा है। अच्युत आपके सभी परितापों को हिमस्नात कमलिनी मुस्कान बना दें। आप इस निसर्ग धरा पर अमृत पीकर निर्भय हो जाँय।

चित्र:अर्द्धेन्दु बनर्जी; स्रोत:Kamat’s Potpourri

सत्यवान: (सिर सहलाते हुए) प्रिये! आज परिश्रम के कारण मेरे सिर में दर्द होने लगा है। सारा शरीर टूट रहा है। कलेजे में भी बड़ी पीड़ा है। इस समय मैं अपने आप को अस्वस्थ सा पा रहा हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि अब तो खड़े रहने की भी शक्ति नहीं रह गयी है। कल्याणी! अब मैं सोना चाहता हूँ।

(सावित्री सत्यवान को संभालती है और सत्यवान धरा पर सो जाते हैं। सावित्री पानी लाती है, पानी के छींटे मारती है। सहसा अत्यन्त तेजस्वी पुरुष दिखायी देता है। वह सूर्य-सा तेजस्वी है। लाल वस्त्र पहने हुए है, शरीर का रंग साँवला है, हाथ में गदा और पाश है, स्वरूप भयानक है। सत्यवान के पास खड़ा हो वह उसी को देख रहा है।)

सावित्री:(उस दिव्य पुरुष को देख खड़ी हो जाती है) प्रणाम महापुरुष! आप कोई देवता जान पड़ते हैं, क्योंकि आपका शरीर मनुष्य-सा नहीं है ।

यमराज: देवि! मैं और कोई नहीं, साक्षात मृत्यु का देवता यमराज हूँ। तुम पतिव्रता और तपस्विनी हो, अतः मैं तुमसे वार्ता कर सकता हूँ। तुम्हारे पति की आयु समाप्त हो चुकी है। अब मैं बहुत विलम्ब नहीं कर सकता, मैं इसे लेने आया हूँ। 

सावित्री: हे देवाधिदेव! मैंने तो सुना है कि जीवों को लेने के लिए आप के दूत आते हैं। आप स्वयं कैसे पधारे हैं?

यमराज: सत्यवान परम धर्मात्मा है। यह दूतों द्वारा ले जाने योग्य नहीं है। 

(इतना कहकर अँगूठे के आकार वाला जीव कलेजे से निकाल लेते हैं और उसे पाश में बाँधकर दक्षिण दिशा की ओर चल देते हैं। दुःख से आतुर सावित्री यमराज के पीछे चल पड़ती है।)

यमराज: सावित्री! तू कहाँ! अरे तू लौट। अब जा, इसका दाह संस्कार कर। पति सेवा के ऋण से मुक्त हो चुकी है और पति के पीछे-पीछे जहाँ तक आना चाहिए, आ चुकी है।

सावित्री: भगवन! जहाँ मेरे पतिदेव जायें, वहाँ मुझे भी जाना चाहिए। आपकी दया से मेरी गति कुंठित नहीं हो सकती। नारी के लिए पति का अनुसरण ही सनातन धर्म है। आप तो जानते हैं यह लोक विश्रुति है कि “भर्तृनाथा हि नार्यः”

यमराज: सावित्री! तेरी धर्मानुकूल युक्ति-युक्त बातें सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। सहज पुरुष हृदय में कोमलता कैसे आ गयी? मैं जानता हूँ कि तू सविता की तपस्या से प्राप्त की गयी है। अतः मैं द्रवित होकर तुम्हें एक वर देना चाहता हूँ। सत्यवान के अलावा कोई एक वर माँग ले।

सावित्री: देव! मेरे श्वसुर के नेत्र की ज्योति नष्ट हो गयी है, अतः वह ज्योति उनको पुनः प्राप्त हो और वे बलवान तथा तेजस्वी हो जायें।

यमराज: तथास्तु! अब तू लौट जा सुकुमारी। थक जायेगी।

सावित्री: पति के समीप रहते हुए मुझे किसी प्रकार की थकावट नहीं हो सकती। प्राणनाथ के अतिरिक्त मेरा और कौन आश्रय है! उन्हें छोड़कर क्या पतिव्रता की कोई और गति होगी। मैं उनके साथ ही चलूँगी। पति का संग और सत्पुरुष का संग, मुझे इस युगल लाभ से वंचित न करें देव!

यमराज: सावित्री! तुम्हारी बातें इतनी धर्मप्रिय और सत्य सार हैं कि मैं इसे परम-प्रिय और हितकर स्वीकार कर रहा हूँ। एक नारी गृहप्रपंच से जकड़ी होकर भी, इतने उन्नत भाव में स्नात हो, यह तो दुर्लभ है। मैं तुम्हें देखकर बार बार यह चाहता हूँ कि सत्यवान को छोड़कर  कोई दूसरा वर माँगो।

सावित्री: प्रभु! मेरे श्वसुर का खोया हुआ राज्य उन्हें फिर उपलब्ध हो जाये और वे राजमद में ग्रसित होकर कभी धर्म पथ से विचलित न हो।

यमराज: चलो, दे दिया! अब तो तू लौट जा।

 (सावित्री पीछे-पीछे लगी है। वस्त्र विश्रृंखलित है, केशराशि कटि तक बिखर गयी है।)

यम एवं सावित्री: चित्र-नन्दलाल बोस

सावित्री: देव आप सारी प्रजा का नियमन करने वाले हैं। अतः आपका यम नाम पड़ा। हे श्रेष्ठ! मैंने यह भी सुना है कि मन, वचन और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी का प्रतिद्रोह न कर के, सब पर समान रूप से दया करना और दान देना ही महापुरुषों का सनातन धर्म है। यूँ तो संसार के सभी पुरुष यथाशक्ति कोमलता का आश्रय ग्रहण करते हैं किन्तु महापुरुष तो महापुरुष होता है। वह तो अपने पास आये शत्रु पर भी दया करता है।

यमराज: कल्याणी! जैसे क्षुधित को अन्न मिले, त्रिषित को जल मिले और चिर रोगी को अमृत समान औषधि मिल जाय, वैसे ही तुम्हारे धर्मानुकूल वचनों को सुनकर मुझे खुशी-खुशी सत्यवान के जीवन को छोड़कर कोई तीसरा जो भी वर माँगो स्वीकार है।

सावित्री: देव! आप धर्मराज हैं, आप दाता हैं और मैं दया की पात्रा हूँ। मेरे पिता अश्वपति को कोई पुत्र नहीं है, उन्हें भी औरस पुत्र देने की कृपा करें।

यमराज: मुझे बरबस कोई तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाने को प्रेरित कर रहा हूँ। चलो! यह भी दे दिया। हे नारी रत्न! मेरी बात मान लो। बहुत दूर आ गयी हो। आगे का मार्ग किसी मानव के लिए असम्भव है। अब तो लौट जा।

सावित्री: महाराज! मेरी एक-दो बातें और सुन लीजिए। एक तो मैं पति के समीप हूँ, अतः दूरी का तो कोई नाम ही नहीं और न मुझे उसका अनुभव हो रहा है। दूसरी बात आप विवस्वान सूर्य के पुत्र हैं और वैवष्वत्‌ कहलाते हैं। सब पर समान न्याय करने वाले होते हैं। आप तो सज्जन शिरोमणि हैं, आप कृपा के जलधर हैं, करुणा के सागर हैं। और क्या इसमें भी दो राय है कि संतों के साथ सात कदम चल ही दिया जाय तो मित्रता हो जाती है- “सतां हि सप्तपदेशु मैत्री”। अतः आप मेरे परम सुहृद भी हुए। आप सन्त हैं, कृपालु हैं, सुहृद हैं, न्यायी हैं, धर्मराज हैं इसलिए आप पर विश्वास करके आप से कुछ कहने का साहस करती हूँ।

यमराज: तूने जो बातें कहीं, वैसी आज तक मैंने किसी के मुँह से नहीं सुनी। अतः मेरी प्रसन्नता और बढ़ गयी है। अब तो सत्यवान के अतिरिक्त कोई चौथा वर भी माँग ले।

सावित्री: हे परमात्मन्! मुझे भी कुल की वृद्धि करने वाले सौ औरस पुत्रों की जननी होने का सौभाग्य प्रदान करें। वे सभी बलवान और पराक्रमी हों।

यमराज: तेरी यह अभिलाषा भी पूर्ण हो। मेरी प्रिय बालिके अब तो तू लौट जा।

सावित्री: हे परम सुहृद परमात्मा! सद्पुरुषों का मन सदा धर्म में ही लगा रहता है और सद्पुरुषों के संग की गई चर्चा कभी व्यर्थ नहीं जाती। संतो से किसी को भय नहीं लगता। सद्पुरुष तो अपने बल से सूर्य को भी समीप बुला लेते हैं। आप तो सनातन सदाचार के प्रणेता हैं। भूत-भविष्य के आधार हैं। अपने प्रभाव से आपने धरती को धारण किया है। आप जैसे केवल आप ही हैं। 

यमराज: सावित्री! मैं परम प्रसन्न हूँ। तुम्हारी बातें ज्यों-ज्यों सुनता हूँ, त्यों-त्यों मेरी श्रद्धा बढ़ती जाती है। मन उमग रहा है। माँग ले कोई और वर।

सावित्री: भगवन! अब तो आप सत्यवान के जीवन का ही वरदान दे दीजिए! इससे आपके सत्य और धर्म दोनों की रक्षा होगी। मेरा सौभाग्य बढ़ेगा और आप का सुयश बढ़ेगा। आपने मुझे सौ पुत्रों का वर दिया है, बिना पति के पुत्र की संभावना कैसे होगी देव?

(यमराज सिर पर हाथ रख लेते हैं। कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं और फिर हाथ वरद मुद्रा में उठा बोल पड़ते हैं-)

सावित्री-यमराज

यमराज: देवि! यह मेरी तीसरी पराजय है। एक बारा हारा था ऋषि पुत्र मारकण्डेय से और उसे अमरत्व का वरदान मिला। दूसरी बार हारा ऋषि-पुत्र नचिकेता से, वह मेरी यमपुरी से अमरत्व का ज्ञान लेकर चिरंजीवी हो लौटा। और तीसरी बार हारा नारी सावित्री से। मेरे पास से तुमने अपने पति को प्रेम से छीन लिया है। मैं हारा हूँ लेकिन प्रसन्नता से, खेद से नहीं। नियम में बँधा हुआ आज नियम तोड़ दे रहा है। वचनबद्ध यमराज तुम्हें तुम्हारा पति दे रहा है। जा! सावित्री नाम को पतिव्रता की रेखा में सबसे ऊँची कर दे। आज की तिथि से तुम्हारे पति को चार सौ वर्षों की आयु दे रहा हूँ। पुत्रि पवित्र किये कुल दोऊ– अपने पिता और अपने पति दोनों को सनाथ कर देने वाली सावित्री तुम्हारी जय हो!

(सावित्री की आँखें बन्द हैं। दोनों नेत्रों से प्रसन्नता के आँसू टपक रहे हैं।)

(पर्दा गिरता है) 

—समाप्त—