दृश्य प्रथम: सुदामा की कुटिया

(सुदामा की जीर्ण-शीर्ण कुटिया। सर्वत्र दरिद्रता का अखण्ड साम्राज्य। भग्न शयन शैय्या। बिखरे भाण्ड, मलिन वस्त्रोपवस्त्रम। एक कोने विष्णु का देवविग्रह। कुश का आसन। धरती पर समर्पित अक्षत-फूल। तुरन्त देवार्चन से उठे सुदामा भजन गुनगुना रहे हैं। सम्मुख प्रसाद और जल रखती ब्राह्मणी। ब्राह्मणी की आँखों से आँसू टपक रहे हैं, श्वांसे गर्म हैं। उदास किनारे खड़ी हो जाती हैं। होंठ काँप रहे हैं, हाथ मुद्रित हैं।)

सुदामा: भद्रे! रात्रि अस्पष्ट होती जा रही है। आलोक के अक्षयवट के नीचे ज्योत्सना ध्यान में डूब गयी है। दिगन्त के तट पर उषा अमृत कलश भर रही है। प्रभु के मन्दिर में प्रत्यूष का शीतल संगीत प्रारम्भ हो गया है। आकाश के नीड़ में प्रकाश का पक्षी जाग उठा है। इस विसुध आलोक के स्वर में तुम्हारी वेदना की झंकृति क्यों हो रही है। तुम्हारी श्वांस प्रश्वांस में यह कैसा रुदन झनझना रहा है!

ब्राह्मणी: प्राणेश! अब सहा नहीं जाता। दारिद्र्य के इस विष बुझे बाणों ने कलेजे को एकदम जर्जर कर दिया है। जीवन के बोझ से झुके कंधे अब कभी सीधे नहीं हो सकते। घोर दुखों के घेरे में कभी सुख न जाने। विपत्ति की अंधियारी राहों में अनगिनत कांटे चुभे हैं। हृदय और मस्तिष्क को कहीं प्रकाश की झलक भी न मिली। एक क्षण हंसने को न मिला। जीवन आशा विरहित संज्ञाहीन शव की भांति हो गया है। अब इसे जकड़कर बाहों के आलिंगन में नहीं रख सकूँगी। आँसुओं भरी अपनी धरती पर अंतिम दर्शन का आँचल बिछाये इस भिक्षुणी की भूल चूक माफ करना हृदयेश्वर। अंतिम प्रणाम स्वीकारो। अब जीवन लीला का अवसान कर दूँगी।

सुदामा: रुको भद्रशीले! यह क्या? तेरे इन पाँवों में फिसलन कहाँ से आयी? दैव विधान का अतिक्रमण कभी किसी के बूते की बात रही है? अतीत का अकृतार्थ निष्फल जीवन, चेतना का स्खलन-पतन, अशुभ-अनिष्ट का वरण सुदामा की धर्मपत्नी का शील हरण करने में सफल हो जाय- क्या यही चाहती हो!

आप पाषाण के समान अचल रहे, किन्तु मैं अन्तःसलिला सदानीरा नहीं रह सकी।

ब्राह्मणी: स्वामी! शास्त्रविद तो आप हैं ही। क्या ’दारिद्रमनन्तकम् दुखम्’ की उक्ति सत्य नहीं है? इस भग्न कुटीर के शीर्ष पर कितनी बार वसंत आकर लौट गया है और उसके अर्पित कंजन कुसुमों की धूलि में मिल मेरी अश्रुधारा वाय की गोद में विलीन हो गयी। कितनी बार ग्रीष्म यहाँ तप कर चला गया है और मेरी उदास संध्या उसकी व्यथा कथा ढोती रही। कितनी बार इस कुटिया के शीर्ष से श्रावणी मेघ मल्हार गाता हुआ पार हुआ है, मैं दीना दुःख की कथरी को समेटने में लगी रही। हंसों की माला पहने कितनी बार शरद आया है और स्वप्न की भाँति पार हो गया। चक्रवातों के क्रन्दन में लिपटा हेमंत आया है और अश्रु की ओस बूँदों से मैं लथपथ हो गयी हूँ। अपने मर्मर में पागल बने शिशिर के सामने सब अंगहीन, दीन प्राणों ने प्रलाप के स्वर में स्वर मिलाया है। आप पाषाण के समान अचल रहे, किन्तु मैं अन्तःसलिला सदानीरा नहीं रह सकी। नाथ! मैं मनोरथों के निर्गन्ध पुष्प एकत्र करती रह गयी। तुम्हारे मनचाहे अर्चा की बेला बीत गयी। फिर कभी जन्म होगा तो यह दासी आपकी पगतरी बनकर जीवन धन्य करेगी। अब विदा चाहती हूँ इस जीवन से।

सुदामा: देवि! संदेहों के दीवट पर विश्वास का चिराग जलाओ! जीवन के अर्क से प्रेम स्नात होता है, जीवनान्त से नहीं। तुम्हीं बताओ, मेरे धूल भरे चरणों की छालों की महक में ऐसा कौन-सा रस मिल गया था कि जिससे आकृष्ट होकर तुमने अपने अश्रु नीर से उन्हें धोकर उन्हें अपने अधरों से चूम लिया था। आज क्या हुआ कि मुझ अकिंचन को और अकिंचन बना रही हो। परिस्थिति की प्रतिमा का अभिषेक आँख की सीपी में सुरक्षित स्वाति बूँदों से करो। श्रीकृष्ण की करुणा की विश्वासी बनो। ज्ञान के आलोक में देखो। यह समस्त संसार उसी के दर्पण में प्रतिबिम्बित है। माधव-स्मृति में एक ऐसे अमृत का स्रोत निरन्तर बहता है जो हर पार्थिवता को अमर बना देता है। प्रिये! धैर्य न छोड़ो।

ब्राह्मणी: मेरे स्वामी! जीवन का आदि पढ़ते-पढ़ते मैं उन आख्यानों उपाख्यानों से उकता कर उसके अंत को देखने के लिए उत्सुक हो गयी हूँ। सारी उमंगे टकराकर चकनाचूर हो गयी हैं। अपने प्राणों की करुण लालसायें अब आप को अर्पित करती हूँ। हाय, कृष्ण की मित्रता भी आपके लिए दो कौड़ी को हो गयी। इस हाड़तोड़ दरिद्रता में आपको जीवित ही मार डालने वाले द्वारका के राजा का कौन सा यश बढ़ रहा है! आपने अपने स्वामी की निज-जन-रक्षण की माला के मनके में दाग लगाने की ही ठान ली है। ऐसे जीवन से तो मरण भला है।

अब तक अर्द्ध मूर्च्छा में पड़ी मैं मन को भाँति-भाँति भुलावे से समझाती रही किंतु अब दरिद्रता की विषैली नागिन का गरल हृदय तक लहराने लगा है, और मेरा अंग प्रत्यंग असह्य दरिद्रता की दारुण ज्वाला में दहक रहा है। यदि मेरी महायात्रा के अंत तक आपके धैर्य-प्रदीप का स्नेह न समाप्त हो और अदृष्ट अवलम्बन की लकुटी न डगमगाये तो अधरों से मेरी भींगी पलकें पोंछकर आप अनुग्रह के करों से मेरे असंख्य पापों की कालिमा धो देना। जीवन नाटिका पर अंधकार की यवनिका का पटाक्षेप होने के पूर्व अब यह दुर्भाग्यदलिता दरिद्रा आपको तथा आपके लक्ष्मीपति मित्र द्वारिकाधीश को अंतिम प्रणाम करती है।

सुदामा: प्रिये! प्रारब्ध का दारुण खेल चल रहा है। मैं कृष्ण का चरणानुरागी हूँ, धनानुरागी नहीं हूँ।

ब्राह्मणी: मरे को मारकर मंगल चाहना आपके किस भगवान का रचा विधान है। द्वारे-द्वारे भटकना ही भक्ति का मानक है तो ऐसे भक्त और ऐसे भगवान को मैं क्या कहूँ? आप द्वारिका जाने के नाम से चिढ़ते रहे हैं। जिसका घर ही उजड़ गया हो उसका परलोक क्या? सब निचुड़ गया है। स्वल्प  भी मिलता तो संतोष रहता। हाय!

Sudama’s wife urges him to seek Krishna’s help   Source: Wikimedia

सुदामा: प्रिये! तुम मुझे तब छोड़कर जाने को राजी नहीं हुई जब कई दिन अन्न का मुँह नहीं देखा था और वह कठिन समय तुम मुझसे बातें करके काट लेती थी। तब नहीं छोड़ना चाहा था जब तुम्हारी सूखी छातियों में दूध नहीं होता था और अपने बच्चों को लोरियाँ गा-गाकर बहलाती थीं। तब नहीं छोड़ना चाहा, जब आँखों में पानी की परत लिए आकाश को निहारती रहती थी और आँखों से बरबस फूट पड़ने वाले आँसुओं को तुम हँस-हँसकर मुझसे छिपाती थी। भद्रशीले! तब मुझे छोड़कर नहीं गयी जब चटाई पर पड़ा मैं हड्डियों की मुट्ठी होकर रह गया था, कोई मेरे पास नहीं फटकता था। मेरी गन्दी चादर धोते, मेरे गीले कपड़ों को बदलते तुम नहीं ऊबती थी। मेरी हड्डियों की ठठरी को दुर्बल बाहों में उठा-उठाकर कंधे को सटा लेती थी और विलख-विलखकर मेरे प्राणों की भीख माँगती थी। आज क्या हो गया है तुम्हें? धैर्यवती का धीरज क्यों छूट रहा है?

ब्राह्मणी: प्राणनाथ! किसी अदृश्य संकेत ने मुझे मथ दिया है। दुर्दशा की हद हो गयी है। एक पथ भूला राही किसी बन्द गली में आकर रुक जाय, ऐसी मेरी हालत हो गयी है। सारी पीड़ा, सारे दुःख, सारे अभाव एकत्र होकर मुझ दीना के विरुद्ध षड़यंत्र रच रहे हैं। अपनी मनोदशा क्या कहूँ? जैसे किसी डाल पर कोई घोंसला बनाये और नीचे से डाल टूट जाए। सारा रुदन अपने हिस्से समेटकर विदा हो जाना चाहती हूँ कि आपको न रोना पड़े।

सुदामा: रुको भार्या-शिरोमणि! काल्पनिक छायाओं में न भागो जो तुम्हें विग्रह में डालती हैं। जो अतीत जीवन से मुक्त, भविष्य के जन्म मरणों से परे है, जिसमें हमारी स्थिति है, जिसमें हम सदा स्थित रहेंगे, उसी की आराधना करो और सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो।

ब्राह्मणी: प्रिये! वह प्रकाश प्रकाश नहीं है जो अंधेरे के भीतर है। कृष्ण की करुणा क्या शब्दकोष में ही दिखेगी? मित्र के दुःख का दूर से आनन्द लेना किस मैत्री का निर्वहन है।

सुदामा: नहीं मानती हो, तो मैं कृष्ण के पास जा रहा हूँ। अपने प्राणों का परित्याग न करना। पर खाली हाथ कैसे जाऊँ। मन विचित्र हो रहा है। जिस मुँह से प्रेम मागा उसी से वैभव की याचना? फिर भी, त्रिया हठ के चलते जा रहा हूँ। कुछ हो तो दे दो।

(ब्राह्मणी थोड़ा तन्दुल लाकर देती है। सुदामा उसे अपने फटे दुपट्टे की कोर में बाँध लेते हैं। हरि-स्मरण करते हुए गृह से बाहर निकलते हैं।)

क्रमशः-