इस ब्लॉग की नाट्य प्रस्तुतियाँ करुणावतार बुद्ध (1,2,3,4,5,6,7,8,9,10) एवं सत्य हरिश्चन्द्र (1,2,3,4,5,6,7,8,9) उन प्रेरक चरित्रों के पुनः पुनः स्मरण का प्रयास हैं जिनसे मानवता सज्जित व गौरवान्वित होती है। ऐसे अन्याय चरित्र हमारे गौरवशाली अतीत की थाती हैं और हमें अपना वह गौरव अक्षुण्ण रखने को प्रेरित करते हैं। चारित्रिक औदात्य एवं समृद्धि के पर्याय ऐसे अनेकों चरित्र भारतीय मनीषा की अशेष धरोहर हैं जिन्होंने अपनी प्रज्ञा, अपनी महनीयता एवं अनुकरणीय विशेषताओं से इस देश व सम्पूर्ण विश्व को चकित किया । ऐसा ही अनोखा नाम है सती सावित्री। सावित्री का यह विशिष्ट चरित्र कालजयी है। नारी की अटूट व दृढ़ सामर्थ्य का अप्रतिम उदाहरण है। प्रस्तुत नाट्य प्रविष्टि वस्तुतः नारी की महानता का आदर है, सहज स्वीकार है।
यह प्रस्तुति सावित्री के उस स्वयंवर को रेखांकित कराने व स्मरण कराने का भी एक प्रयास है जो सही अर्थों में स्वयंवर कहे जाने योग्य है। सावित्री का यह सम्मानित कथानक स्वयंवर को नवीन अर्थ देने वाला है। उस युग और संप्रति वर्तमान युग का भी अकेला उदाहरण। स्वयंवर का तो यथार्थतः अर्थ ही है न, स्वयं का वर- ‘स्वयं वरतीति स्वयंवरः’– अर्थात् कन्या अपने वर का स्वयं वरण करती है। किन्तु क्या इतिहास का कोई भी स्वयंवर केवल कन्या की इच्छा के साथ सम्पन्न हुआ है? पिता की आज्ञा व इच्छा सिर चढ़कर बोलती है।
सावित्री व सत्यवान का प्रथम मिलन
सावित्री: गुरुदेव! यहीं सरिता तट पर रुक जायें। यहाँ जो जहाँ है सत्य को समर्पित है। सब चिर परिचित सा लग रहा है। ये फूल, यह लहराता वृक्ष, ये सूखी वन की लकड़ियाँ, यह नदी का कूल- सब मुझे रोक रहे हैं। लग रहा है, यहाँ का पवन मुझमें ही प्रशस्त हो रहा है । आकाश झुक कर मेरी हथेलियों पर लिख रहा है कि किसी भी सीमांतिनी का विवश अश्रु तेरा बने। विजेता भी विथकित हो तुम्हें अपनी पराजय सौंप सुखी हो जाये। धरित्री कह रही है कि तुम्हारा बाहुल्य सृष्टि की दुख-काया को अपने में समेट ले।
(दूर सत्यवान को लकड़ी काटता देखकर) कृपया उस ओर हमें ले चलें जहाँ एक दिगम्बर पादप पर एक तापस तरुण की कुल्हाड़ी गिर रही है। गुरुदेव! लग रहा है कि एक-एक चोट से कोई संगीत निकल कर बह रहा है। वनस्पति स्वयं को उस दिव्य वपुष के आगे समर्पित कर सनाथ हो रही है।
(सभी उसी ओर चलकर वृक्ष के पास आते हैं जहाँ सत्यवान तन्मयता से काष्ठ-संचयन कर रहा है।)
अमात्य: हे सुदर्शन सौम्य बालक! प्रातः-प्रातः तुम इस काष्ठ-संचय कार्य में तल्लीन हो। हम उत्सुकतावश इस प्रदेश का मार्ग तुमसे ही पूछने के लिए यहाँ रुके हैं।
सत्यवान: हे भद्र वपुष! इसके पूर्व कि आपको इस वनान्तर का मर्ग प्रशस्त करूँ, मैं आपका परिचय जान सकता हूँ?
अमात्य: प्रिय! मद्रदेशाधिवासी मैं धर्मप्राण राजा अश्वपति का अमात्य हूँ। यह सुलक्षणा पुत्री उनकी तनया है और आप गुरुदेव हैं। राजा की अनुशंसा के अनुकूल हम देशाटन, प्रकृति दृश्यावलोकन एवं विशेष रूप से तीर्थ दर्शन के लिए निकले हैं।
सावित्री: हे पुरुष श्रेष्ठ! इस तपोवन के अवलोकन की हमारी उत्सुकता हमें बरबस यहाँ ठिठक जाने को बाध्य कर गयी। यदि आपको कष्ट न हो तो, क्या आप हमें अपना परिचय देने की कृपा करेंगे? और आगे को निकलते हुए मार्ग को स्पष्ट करेंगे?
गुरुदेव: पुत्र! इसे अन्यथा न लेते हुए हमारी जिज्ञासा शान्त करने का अनुग्रह करो।
सत्यवान: (विनीत भाव से) पहले मैं पूजनीय गुरुकल्प, आप को एवं समस्त श्रेष्ठ जनों को सादर प्रणाम करता हूँ। इस सुलक्षणा देवि का भी विनीत अभिनन्दन है। आप हमारे अतिथि हैं। कृपया हमारी विश्राम-स्थली में प्रविष्ट होकर हमारा आतिथ्य स्वीकार करके आगे प्रस्थान करें। वहीं बात होगी।
गुरुदेव: समय स्वल्प है। आगे दूर निकलना है, क्षमा करें, हम प्रसन्न हैं। अपने परिचय से हमारि उत्सुकता को शान्त करो मधुवचन-प्रवीण कुमार!
सत्यवान: हे देवता! शाल्व देश के भूपाल द्युमत्सेन का तनय हूँ। शत्रु से आक्रान्त हो वन में तात चरण में आश्रय लिया। मैं शिशु था, तब से अब तक की उम्र तप साधना में व्यतीत की है। समय ने सुविधाओं पर ग्रहण लगा दिया किन्तु संयम और संतोष से समय का अतिक्रमण कर रहे हैं। यही हमारा संक्षिप्त आत्मकथ्य है। आपने अपनत्व की चादर ओढ़ा दी, इसलिए मुखर हो गया। क्षमा करें, आपका जो क्षेमकारी मन है उससे उपकृत हूँ। मैं पूज्यवर के सामने होकर वार्तालाप कर रहा हूँ, यह मेरा दोष है। आप……(बीच में सावित्री रोकती है।)
सावित्री: महानुभाव! आप अपने को चिन्त्य क्यों समझ रहे हैं? कालो हि दुरितक्रमः। भले ही थोथे समुद्र के आवेश में वेगवती नदी की शक्ति खो गयी हो किन्तु हमें लग रहा है, पुण्य परम्परा के जल में प्रवाहित आप एक दीप होंगे। यात्रायें फिर आरम्भ होंगी, अप्राप्त से प्राप्त की दिशा में। हे विरल विभूति! क्या मैं यह जान सकती हूँ कि आपने इतना दुख सहा कैसे?
सत्यवान: हे शुभार्ये! विडम्बना यह है कि आदमी का सपने का ही संसार बना हुआ रहता है। आदमी ने संसार को सच मान लिया है और उसे ही सुख का निमित्त समझ लिया है। बंद आँखों से देखा जाने वाला स्वप्न तो अलग है, पर संसार भी एक स्वप्न ही है। स्वप्न की माया निराली है। हमारी मूर्च्छा इतनी गहरी है कि हम स्वप्न-संसार का ही आनन्द ले रहे हैं। असल में चित्तवृत्तियों का दास बने रहना स्वप्न में ही तो जीना है न सुमुखि! मैं गतानुगतिक के अखिल प्रपंच को स्वप्न समझकर सुखी हूँ।
सावित्री: आप कभी अशान्त नहीं हो जाते?
सत्यवान: देवि! तृष्णा, आसक्ति और उत्तेजना इनसे ही चित्त के अवनति के द्वार खुलते हैं। शान्ति का स्रोत हमारे भीतर ही है। आवश्यकता पूर्ति के लिए श्रम करता हूँ, किसी भी बात की गाँठ नहीं बाँधता। स्वामित्व मन पर करता हूँ, इसलिए अशान्त नहीं होता हूँ।
सावित्री: आपकी वाणी में मर्म को छू लेने की एक लोल लहर है। फूलों के फेन और कुलिश के रज मिश्रित गढ़न ऐसी मिलती कहाँ है?
सत्यवान: आपकी सुधा-वर्षिणी दृष्टि और आह्लादिनी वाणी मुझे अकिंचन से और अकिंचन बनाती चली जा रही है। कल तक जो सुरभि मुझे छेड़ जाती थी। हृदय से सटकर कोई कल्पना विश्राम करती थी। मधुनिशा वसुन्धरी रस कलश उठाये पथ पर आगे बढ़ने को उत्सुक होती थी, वह करवटें बदले, इसके पूर्व ही आपकी करुणा से स्नात हुआ मैं अपने नीड़ में लौट रहा हूँ। अपने परिचय की भूमिका में उतरा ही था कि मधुभरी साँसें सिहर कर रोम-रोम सहलाने लगीं। मैं इस अम्लान पावनी के विनयावनत क्षमा याची हूँ। पिता प्रतीक्षा में होंगे। चलूँ ।
सावित्री: पिता तो मेरे भी प्रतीक्षा में होंगे। चलूँ, (दोनों एक दूसरे को अंतरंग दृष्टि से देखते हैं) आगे समय आयेगा कि आपसे या आपका आतिथ्य रूप ग्रहण करे।
गुरुदेव: पुत्री! अभी आगे भी तो चलना है!
सावित्री: पूज्यवर! अब कौन-सी यात्रा? लौट चलें। अन्वय के ज्वार में व्यतिरेक विलीन हो गया । जो होना था हुआ, जो करना था किया, शेष वार्ता फिर कभी। (मंत्री समूह सावित्री के साथ जाने को तैयार)
सत्यवान: सर्व सर्वत्र को प्रणाम कर रहा हूँ। धृष्टता क्षमा हो!
सावित्री: आशीष दो, वरेण्य पुरुष! आज का परिचय-प्रभात चिर अमर रहे। (सभी का प्रस्थान, सत्यवान स्तब्ध खड़ा)
सत्यवान: (स्वगत) चले गए वे लोग। क्या देता परिचय उन्हें अपना। आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे थे मुझे वे लोग। कभी डबडबायी आँखों से, कभी निरीह और कभी प्रश्न भरी आँखों से, तो कभी विस्मय और सन्देह से नहायी उत्ताल आँखों से। किसी दुःस्वप्न-रात्रि की कहानी का नायक रहा मैं। जिसे इतिहास ने विस्मरण की झोली में डाल दिया है। अब चलो सत्यवान! अपनी राह पकड़ो। जाने पहचाने से अनजान और अनजान से जाना पहचाना बन जाता है कोई।
(कुटिया की ओर प्रस्थान कर जाता है।)