सौन्दर्य लहरी आदि शंकर की अप्रतिम काव्य सर्जना का अन्यतम उदाहरण है। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है सौन्दर्य लहरी में।

इस ब्लॉग पर अब तक इस रचना के 55 छन्दों का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवींग्यारहवीं, बारहवीं, और तेरहवीं कड़ी के बाद आज प्रस्तुत है सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 56-60) का हिन्दी काव्यानुवाद।

सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्य रूपांतर

दृशा द्राघीयस्या दरदलितनीलोत्पलरुचा
दवीयांसं दीनं स्नपय कृपया मामपि शिवे
अनेनायं धन्यो भवति न च ते  हानिरियता
वने वा हर्म्ये वा समकर निपातो हिमकरः ॥५६॥
दूरदृष्टि मनोहरा तव
नील कंजदलाभिरामा
सींच दे मुझ दीन को भी सदय निज करुणा सलिल से
अहहः होंगे धन्य मेरे प्राण
तेरी इस कृपा से
रंच भर तेरी न होगी हानि
द्युतिमय चन्द्र किरणें
एक सम ही हैं प्रकाशित युगल को करती निरंतर
हो भले वह विपिन प्रान्तर या कि राजमहल
शिवे हे! 

अरालं ते पालीयुगलमगराजन्य तनये
न केषामाधत्ते कुसुमशर कोदंडकुतुक
तिरश्वीनो यत्र श्रवणपथमुल्लंघ्य विलस
अपागं व्यासंगो दिशति शरसंधानधिषणा॥५७॥
युगल तेरी श्रवण बाली
चक्र सी शोभायमाना
कौन है उनको न जो
कोदण्ड मनसिज का कहेगा
कर उलंघन
कर्ण पथ का
कुटिल नयन कटाक्ष जिनसे
वाणवेधनबुद्धि
रखते हैं
अहो गिरिराजतनये!

स्फुरद्गण्डाभोग प्रतिफलितताटंकयुगलं
चतुश्चक्रं मन्ये तव मुखमिदं मन्मथरथ
यमारुह्य द्रुह्यत्यवनिरथमर्केंदुचरणं
महावीरो मारः प्रमथपतये सज्जितवते॥५८॥
मानता हूँ
मुख तुम्हारा
हैं जहाँ ताण्टंक गुम्फित
युगल
प्रतिबिम्बित जहाँ पर
परम रम्य कपोल तेरे
चार चक्रों से सुसज्जित
मनोभव के रथ सदृश मैं
बैठ जिसमें
महाबीर मनोज
रवि शशि चक्र भू रथ के रथी
कामारि का मन
क्षुब्ध कर देता
कुसुमशर काम
चारु कपोलिनी हे!

सरस्वत्याः सूक्तीरमृतलहरीकौशलहरीः 
पिबन्त्याः शर्वाणि श्रवणचुलुकाभ्यामविरलं 
चमत्कारश्लाघाचलितशिरसः कुण्डलगणो
झणत्कारैस्तारैः प्रतिवचनमाचष्ट इव ते ॥५९॥
कर्ण कुहरों से
मनोहरणी
सुधारस सूक्ति लहरी
तुम सरस्वतिमुखस्रवित का
पान करती मग्न अविरत
वचचमत्कृति मुग्ध
जब करती प्रशंसा में चलित शिर
कर्ण कुण्डल खनक जाते
तार के झंकार के मिस
प्रतिवचन प्रस्फुटित करते
वदन से
शर्वाणि मातः!

असौ नासावंशस्तुहिनगिरिवंशध्वजपटि
तवदीयो नेदीयः फलतु फलमस्माकमुचित
वहत्यंतर्मुक्ताः शिशिरकर निश्वास गलितं 
समृद्ध्या यत्तासां बहिरपि च मुक्तामणिधरः॥६०॥
यह तुम्हारी नासिका का वंश मनहर
घटित जिसमें
शिशिरतर निःश्वास की अंतस्थ
मौक्तिकमालिका है
वहिर्प्रान्त
समृद्धि जिसकी
धार्य मुक्तामणिधरी है
वही नासावंश तेरा
हम अकिंचन दीन के हित
अहो! हिमगिरिवंशध्वजिनी! 
हो उचित फलदानकर्ता॥

क्रमशः—