एक ज्योति सौं जरैं प्रकासैं
कोटि दिया लख बाती।
जिनके हिया नेह बिनु सूखे
तिनकी सुलगैं छाती।
बुद्धि को सुअना मरमु न जानै
कथै प्रीति की मैना।
दिपै दूधिया ज्योति
प्रकासैं घर देहरी अँगन।
नवेली बारि धरैं दियना॥
—(आत्म प्रकाश शुक्ल)
नवसंवत्सर ने आनन्द भरित अँगड़ाई ली। आ गया वासंती नवरात्र (चैत्र नवरात्रि)। नव संवत्सर का प्रफुल्ल राज्यारोहण। भारतीय नव संवत्सर की द्वंद्व विसर्जिनी बेला। उत्तरायण सूर्य का अनिर्वेद्य पदचरण। चैत्र नवरात्रि का उन्मीलन राम-जन्म। आश्विन नवरात्र का अभियान रावण-विजय। दोनों समय महाशक्ति की अर्चना वेला। यह समय लोकोत्सव की प्राचीन परम्परा है। यह संवत्सर का आगमन मातृ-रूपा शक्ति की अनुकूल का अमृतानन्दी दोलारोहण है। इस काल विशेष में लालायित होकर प्रकृति भद्रता का भण्डार लुटाती है- नमः प्रकृत्यै भद्रायै नीयताः प्रणतास्मताम्।
इस शक्ति पर्व को हम वात्सल्य और लावण्य की युगल पीठिका के रूप में देखते हैं। जब सारे संभावना मुकुल मुरझाये हों, रचना मंजरियाँ चिता भूमि में भस्मसात् हो गयीं हो, स्वार्थों के रक्तबीज दुर्निवार क्रीड़ा कर रहे हों, शान्ति, सुख और मोद का उज्ज्वल भवितव्य ग्रहणग्रस्त हो गया हो तभी सर्वदेवशरीरजा जगन्माता प्राप्ति के उल्लास को बलीयसी बना देती हैं। महामोद बिखर जाता है-
अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा। (दुर्गा सप्तशती २/३)
देवत्व पतन को प्राप्त था, उसी समय सौन्दर्य, शील और शक्ति की त्रिवेणी विपत्ति सिन्धु के संतरण की नौका बनी। यह संवत्सर उसी महोल्लास के वर्षण की बेला है। महिष मर्दन के बाद रक्तस्नात् भीषण स्वरूप के तिरोहित होने की गाथा और आनन्द सौन्दर्य के नवोन्मेष की अवाप्ति ही नवरात्रि के नव संवत्सर का महावर लगा देवि का चरण जलजात है। देवता प्रार्थना करते हैं-
ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्रबिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम् ….
इस स्वरूप को ही नवसंवत्सर की पीठस्थली स्वीकार्य करने में कभीं दो राय नहीं हो सकती। यह मांगल्यमयी विभावना है जो देवताओं के मुख से फूटी थी कि सबका वित्त, विभव, धन, दारादि सम्पदा बढ़े, बढ़े, बढ़ती रहे, फलती-फूलती रहे। गाँवों में होलिका दहन के समय होलिका पढ़ाते हुए नव संवत्सर की पताका लहराते हुए जनसमूह बोलता है-
बेइल माता दिहा असीस, जिया लरीको लाख बरीस।
जे जीये ते खेलै खाय, जे मुऐ ते लेखै लाख। …..
नव संवत्सर के नवरात्र की एक अनूठी कसक है। भगवती का उन्मीलन रमणीयता की पालकी में होता है। क्षण-क्षण रमणीय, क्षण-क्षण नूतन, यही तो नव संवत्सर की भूमि है – क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयतायाः।
वासंती यह नवरात्र वेला हमें देवि की वह ऋतुराज गर्भिणी संजीवनी सुधा प्रदान करती है जो जन्म-जन्मांतर की ज्वर बाधा को दूर कर देती है। शंकराचार्य इसी नव वर्ष की वासंती गोद में बैठकर इस विभावना में प्रवहित हुए थे-
वसन्ते सानन्दे कुसुमित लताभिः परिवृते
स्फुरन्नानापद्मे सरसि कलहंसालिसुभगे।
सखीभिः खेलन्तीं मलयपवनान्दोलितजले
स्मरेद्यस्त्वां तस्य ज्वरजनितपीडापसरति॥ (आनन्द लहरी)
ज्वर जनित पीड़ा क्या है- मदनोन्माद ही तो। यौवन ज्वर केहि नहि बल कावा। भला इस विषय-ज्वर को विनष्ट करने वाली इस भगवती का वासंती अर्चन कितना स्तुत्य है, प्रणम्य है। आचार्य की इस आनन्द लहरी स्तुति का जैसे अनुवाद ही गोस्वामी तुलसीदास ने पुष्प-वाटिका प्रसंग में उपस्थित कर दिया है जहाँ जनक तनया सखियों के साथ जल क्रीड़ा करती हैं, एक दूसरे के ऊपर जल उछालती हैं। मलय पवनान्दोलित जल है, वसन्त की बेला है और फिर तब मुदित मन सीता गौरी-निकेतन गयी हैं-
भूप बागु वर देखेउ जाई ।जँह बसंत मृदु रही लुभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥………
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥…….
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
यह वासंती पर्व, यह नूतन वर्षी चरण-निपात जगन्माता की चिन्मयी लीला है। हिमालय से उत्पन्न हुई एक मनोहारिणी लता है। उसके नन्हे-नन्हे सुकोमल हाथ, उस लता के ललित पल्लव हैं। मुक्ताहार उस लता के वर्ण-वर्णी विमल पुष्प गुच्छ हैं। बिखरी हुई सुचिक्कण अलकावली का दोलन भ्रमरों की लीला है, स्थाणु (शिव) से तंदुल पिंड तिलावेष्टित है। पयोधरों के भार से विनत हो गयी है और अमिय वर्षी मीठी बोली ही उस लतिका की सरसता है- ऐसी चिदानन्द लतिका जगद्धात्री पराम्बा, नूतन वर्षाधिष्ठात्री अखिल विश्व में विचरण कर रही है-
हिमाद्रेः संभूता सुललितकरैः पल्लवयुता
सुपुष्पा मुक्ताभिर्भ्रमरकलिता चालकभरैः।
कृतस्थाणुस्थाना कुचफलनता सूक्तिसरसा
रुजां हन्त्री गन्त्री विलसति चिदानन्दलतिका॥
सौन्दर्य लहरी की यह शंकराचार्य की उद्भावना अक्षरशः इस श्रेष्ठ पर्व की पत्रावली पर अमिट हस्ताक्षर है –
तुरीया कापि त्वं दुरधिगमनिःसीममहिमा
महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषी। (सौन्दर्य लहरी)
यही नहीं नगपति किशोरी की विश्वविमोहिनी छवि इस नवसंवत्सरमयी वासंती नवरात्र की थाती है। यह जगत-दुख-द्वंद्व से ग्रस्त वत्स के लिए पयोधर क्षीर है। तापत्रय ज्वलित के लिए मलयज शीतल चन्दन लेप है। अद्भुत है यह पर्व। भाव राज्य में सत्य का ध्वज फहर उठा है। शीला का दृढ़ दण्ड सुन्दरता से सम्पन्न हो गया है। माँ की ललित छवि निहार कर वसंत के नव-नव संवत्सरीय विलास पर सर्वात्मना बिछ जाने का जी होता है-
मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता।
स्फुरत्कांची शाटी पृथकटितटे हाटकमयी
भजामित्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम्॥
नव वासंती यह शक्ति पर्व दुंदुभिनाद करते हुए आया है- ’उठो, मृत्यु के पद को ढकेल दो, धन धान्य और संतानों से फलो फूलो, इस जगत प्रपंच की दानवी मृत्यु लीला की कपाल क्रिया करो, धरित्री और इसके जीवन का सत्य अपराजेय है- सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्व शक्तिसमन्विते की करुणाप्लुता दृष्टि से स्नात हो जाओ, कुटिलता को पददलित करने में लगो, आनन्द शान्ति के अमृत रस का पान करो, जीवन को मधुर, सरस और प्रशान्त बनाओ, अशान्ति की चिर विदाई करो, शत्रु को पराभूत कर काल के कपाल पर चरण रखते हुए आगे दौड़ पड़ो। काली- काल-समय-क्षण की अधिष्ठात्री जो माँ है उसकी ममतामयी गोद में बैठ जाओ। माँ की गोद में बैठकर माँ की लीला निहारो’ –
“पंकिल की पीठ पर हँथोरी मंजु फेरि-फेरि, बाँटा कर दुलार दीन बेटे की चिरौरी है।” ( शैलबाला शतक )
सप्तशती की फलश्रुति भी कहती है, ऐसी भावना वाले घर को मैं कभी भी नहीं छोड़ती हूँ- सदा न तद्विमोक्ष्यामि सांनिध्य तत्र मे स्थितं (१२/९)
यह हमारी माँ की गोद ही चैत्र नवरात्रि है। यही नये सवंत्सर का दुलारमय अंचल है। यही मधुमास का बौर है। यही वैशाख की भोर है। यही जेठ की छाया है। इसी की याद ही आषाढ़ की घटा है। श्रावण-भादो की बरसात है। क्वार की जुन्हाई है। कार्तिक और अगहन की पयस्विनी है। पूष और माघ की दुपहरिया है। यही माँ की गोद ही फागुन का फाग है। यही हमारा सर्वस्व है। यही नवसंवत्सर ही हमारी पुष्पसज्जा है, दृष्टि है, हँसी है, स्वीकृति है, समर्पण-वृत्ति है। मातृभावमयी सारी प्रकृति हममें समा गयी है और हम उसमें समा गए हैं।