अपने बारे में कहने के लिए चलूँ तो यह पीपे का पुल मेरे जेहन में उतर आता है। गंगा बनारस में बड़ी चुहल करती हुई मालूम पड़ती हैं। गंगा लहरों की गति के साथ जीवन की गति संगति बैठाती है। गंगा के तटीय क्षेत्र गंगा के आश्वासन पर जीते हैं, लहरों की मनुहार पर उनके अस्तित्व का पारावार छलक-छलक सा जाता मालूम पड़ता है। पीपे के यह पुल गंगा की गोद में झूला झूलते गंगा से लोक का नाता जोड़ते हैं। सहचरी गंगा हमारे रोम को सहलाने लगाती है। कंक्रीट के ऊंचे विशालकाय पुलों से लोक उतना नहीं जुड़ता जितना ये पीपे के पुल- लहराती हुई नदी पर लहराते हुए पुल- हमें हमारी थाती, हमारी गंगा से जोड़ते हैं।
गाँव का लहरी मन गंगा की लहरों को इस लहराते हुए पुल से ही पार कर लेना चाहता है। यह पुल पूँजी के उस दलदल से दूर आम आदमी की स्वाभाविक जिंदगी के पैरोकार मालूम पड़ते हैं। कितना साफ अक्स दिखता है इस पुल में आम आदमी का। न जाने कितनी कड़ियों को जोड़ कर बनता है पुल पीपे का- रस्सियों के सहारे, और न जाने कितने ऐसे ही नियति-सम्भाव्यों से निर्मित होता है आम आदमी।
पुल का उठना गिरना गंगा की लहरों की क्रीडाएं हैं और उठते, गिरते, लहराते इस पुल का बने, टिके रहना गंगा की इच्छा। गंगा का तनिक भ्रू-भंग इस पुल के अस्तित्व का नष्ट होना है। बहुत अलग नहीं है एक आदमी का वजूद। नियति की लहरों पे अठखेलियाँ करता न जाने कितनों का ह्रदय सूत्र क्षण में ही टूट कर नष्ट हो जाता है। मैं क्या कहूं अपने लिए। अज्ञेय की कविता की तरह- “मैं सेतु हूँ।”