बहुत पहले जब अपने को तलाश रहा था एक कविता लिखी थी- कुछ रूमानी- कसक और घबराहट की कविता। शब्द जुटाने आते थे और उस जुटान को मैं कविता कह दिया करता था या कहूं दोस्त कह दिया करते थे। हिन्दी का विद्यार्थी था इसलिए ये एक कर्तव्य-सा मालूम पड़ता था। विद्यालय-विश्वविद्यालय में तो रोमांटिक कवियों को ही पढाने का फैशन है। तो लो मैं भी हो गया कवि और लिख मारी कविता। कविता कुछ यूँ थी-

बोलो कैसे रह जाते हो तुम बिन बोले

बोलो कैसे रह जाते हो तुम बिन बोले
जब कोई प्रेमी द्वार तुम्हारे आकर तेरा हृदय टटोले।

जब भी कोई पथिक हांफता तेरे दरवाजे पर आ
तेरे हृदय शिखर पर अपनी प्रेम पताका फहराए,
जब भी आतुर हो क्षण-क्षण कोई विह्वल मन डोले-
बोलो कैसे रह जाते हो तुम बिन बोले ॥1॥

जब भी कोई तुम्हे समर्पित तुमको व्याकुल कर जाता है
तेरे मन की अखिल शान्ति में करुण वेदना भर जाता है ,
जब भी कोई हेतु तुम्हारे हो करुणार्द्र नयन भर रो ले-
बोलो कैसे रह जाते हो तुम बिन बोले ॥2॥

Categorized in:

Love Poems, Poetry,

Last Update: June 25, 2024