छंदों से मुक्त हुए बहुत दिन हुए
कविता !
क्या तुम्हारी साँस घुट सी नहीं गई ?
मैंने देखा है
मुझे डांटती हुई माँ की डांट
पिता की रोकथाम पर झल्लाहट बन जाती है
टूट जाता है उस डांट का छंद
उसमें कोई रस नहीं आता मुझे।
मैंने देखा है
खेलते हुए ‘खो-खो’ या ‘कबड्डी’
ज्यों ही टूटता है साँस का अविरल गतिशील छंद
अप्रासंगिक हो जाती है ललकार – ‘कबड्डी-कबड्डी’
बंद होना पड़ता है सीमाओं में ।
मैंने देखा है
अक्सर सन्नाटे में, सन्नाटे से डरकर
जब बढ़ानी चाही है मैंने अपनी पद गति
रास्ता काट गयी है बिल्ली
विदा हो गया है छंद वहां भी
डर गया हूँ मैं सन्नाटे से ।
मैंने देखा है
अपने पास की नर्सरी में फूलता है रोज ही ‘काला गुलाब’
अछान्दिक हो गया है गुलाब का ‘गुलाबपन’
सम्मोहित नहीं करता वह अब मुझे।
मैंने देखा है
एक विशिष्ट विश्लेषक का सम्पादकीय
एक विशिष्ट कवि की कविताओं के लिए –
“उनकी कविताओं में होता है ‘नैरेशन’ , और इसके लिए
खालिस गद्य का प्रयोग,
और उस गद्य से उभरती है बारीक सी कविता;”
मुझे लगता है
छंदों से दूर हो गयी है कविता
इसीलिए हमें
गद्य से उभारनी पड़ रही है- ‘बारीक-सी कविता’।