मेरी दीवार में एक छिद्र है
उस छिद्र में संज्ञा है, क्रिया है, विशेषण है।
जब भी लगाता हूँ अपनी आँख उस छिद्र से
सब कुछ दिखाई देता है
जो है दीवार के दूसरी ओर।
दीवार के दूसरी ओर
बच्चे का खिलखिलाना है
बच्ची का रोना गाना है
प्रेयसी का रूठना है, प्रेमी की मनुहार है
माँ की झिड़की, पिता की सीख है
दीवार के दूसरे ओर ही
गुरु जी का ज्ञान है
विद्यार्थी का अध्ययन है
आजी की गुदगुदाती बात है
और बाबा की राम रटन है
उस छिद्र के पार
खेत है, खेत की लाट है
खेत में झूमता खड़ा हरा धान है
धान की बाट जोहता खलिहान है
एक कुँआ है, कुँए पर लटकी बाल्टी है
बाल्टी में थरथराता पानी है,
पानी से बर्तन माँजती एक सयानी है
छिद्र के भीतर, दीवार के उस पार
वह सब कुछ है जो जीवन है
अयाचित, स्वतःस्फूर्त, स्वयंसिद्ध…..
आह! उस विशुद्ध आनंद की गोद में
ढुलक जाने का आनंद !
पर……….
मेरे चारो तरफ़
मेरे स्वयं की दीवार है
और मेरी दीवार में एक अतार्किक छिद्र है।