पिस-पिस कर भर्ता हुए समय के कोल्हू में
तुम समायातीत बनो तो मर्द बखानूँ मैं।
जाने कितने घर-घर के तुम व्यवहार बने
कितने-कितने हाथों के तुम औजार बने
रंगीन खिलौनों वाली दुनियादारी में
तुम दर-दर चलते फिरते बाजार बने,
बन कर फौलाद रगड़ मारा है कितनों को
अधरों का गीत बनो तो मर्द बखानूँ मैं।
माना तेरी बाँहों में है अपार पौरुष
है कौन तुन्हें जो ठोकर मार गिरा पाये
तेरे जीवन में तो सागर की गहराई
किसकी मजाल जो उसकी थाह लगा पाए
दुश्मन बन कर तो खूब चलायी है कृपाण
जन-जन का मीत बनो तो मर्द बखानूँ मैं।
अपनी पवित्रता का रच लेते खुद प्रमाण
सीता की अग्नि परीक्षा लेने वाले तुम
निज अन्तरंग क्या कभीं टटोला है तुमने
बहिरंग स्वच्छ भीतर से कितने काले तुम
काजल की कोठी में बैठी वैदेही-सा
तुम परम पुनीत बनो तो मर्द बखानूँ मैं।
है धन्य वही जो जग की भूलभुलैया में
औरों की उलझी गुत्थी को सुलझा देता
पोंछता किसी दुखियारी आंखों के आँसू
बढ़ तृषित कंठ की तीखी प्यास बुझा देता
दिग्विजयी बन कर ऐंठ रहे हो किंतु कभी
हारे की जीत बनो तो मर्द बखानूँ मैं।
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