आँखें अपरिसीम हैं, संसृति का आधार
है बिना दृष्टि का सृष्टि निवासी निराधार।
ऑंखें बोती हैं देह-भूमि पर प्रेम-बीज
इन आंखों पर ही जाता है हर रसिक रीझ।
मन का हर उद्दाम भाव आँखें कह जातीं
जहाँ रुका है मन आँखें भी रुक रह जातीं।
है उदगम हृदय अवश्य मगर आँखें कविता की राह
आँखों में कविता का हंसना आँखों में कविता की आह।
याद करो वह आदि रचयिता क्रौंच देख कर चिल्लाया था
तब इन आँखों से अन्तर में कविता-ज्वार उतर आया था।
इन आँखों से ही रोया था कालिदास का विरही यक्ष
जलद मेघ भी दूत बना, क्या बनी नहीं कविता प्रत्यक्ष?
क्या याद नहीं है शकुन्तला दुष्यंत नृपति की अखिल कथा
जिसमें विंहसा था नेत्र-काव्य, छलकी थी जिसमें सजल व्यथा।
वृषभानु-सुता की ऑंखें भूल गयीं जिन पर उद्धव बौराया था
निकली थी शाश्वत कविता ‘राधे-राधे’ जगत प्रेममय हो आया था।
है एक कहानी, देख बुद्ध को अंगुलीमाल बदल आया था
वह आँखों की कविता ही थी, जिसने पत्थर पिघलाया था।
लैला ने इन आँखों में ही एक समंदर देखा था
इन आँखों से ही मजनूं ने लैला को सुंदर देखा था।
कविता-मय यदि हृदय, निरंतर
सरस भाव चिंतन करता है
चित्र, चित्र फ़िर कहाँ,
सजीव होकर नर्तन करता है।
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