मेरी यादों में खोयी अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगाजल होती हो ।
सबका अभिनन्दन करती हो, लेकर अक्षत, चंदन, रोली
मन में सौ पीड़ाएं लेकर, सदा बांटती हंसी ठिठोली
जब-जब हम लयगति से भटकें, तब-तब तुम मांदल होती हो।
जीवन भर दुःख के पहाड़ पर, तुम पीती आंसू के सागर
फ़िर भी महकती फूलों-सा, मन का सूना-सा संवत्सर
मन के दरवाजे पर दस्तक देती तुम सांकल होती हो ।
व्रत,उत्सव,मेले की गणना कभी न तुम भूला करती हो
संबंधों की डोर पकड़कर, आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से ज्यादा निर्मल होती हो ।
पल-पल जगती सी आँखों में मेरी खातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को मन्दिर में घंटियाँ बजाती
जब-जब ये आँखें धुंधलाती तब-तब तुम काजल होती हो ।
हम तो नहीं भगीरथ जैसे कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो तुमको हम किस जल से तारें
तुम पर फूल चढाएं कैसे, तुम तो स्वयं कमल होती हो ।