साहित्य में शील हास्य का आलंबन माना जाता है। आतंकवाद की तत्कालीन घटना के बाद पता चला कि निर्लज्ज भी कैसे हास्य के आलंबन हो जाते हैं? और समझते हैं कि निर्लज्ज तीन बार हँसाता है, कैसे?
सुना तो गोपियों के लिए था कि वे लज्जित हो ठिठक जाती हैं और हम हंसने लगते हैं क्योंकि कपड़े तट पर छोड़ कर आने की जड़ता लज्जा में बदल गयी थी, पर उन्हें क्या कहें (मतलब पाटिल, प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी) जो लात तो खाता जाय और कहता जाय ‘ अच्छा ज़रा फ़िर मारो तो देखें’ या ‘ फिल्मों के संवाद बोले- ‘बड़े बड़े देशों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं’? “मनमोहन सिंह तुम बुद्धू (नहीं, नहीं कायर) हो” ऐसा कहने पर भी “जी हुजूर’ कहने वाले पर तो हम इसी लिए हंसते हैं कि हया जैसी चीज उनके हिस्से पड़ी ही नहीं ।
जिस लज्जा से जड़ता का प्रायश्चित हो जाता है यदि उसका अनुभव हो जाय तो ठीक; यदि न होती हो तो हम इसलिए हंसते हैं कि जड़ता दूनी गहरी है। चलिए एक उपाधि इन्हें दे देते हैं- ‘निर्लज्जानन्द’ ।
कुछ नहीं कर सकते यह राजनेता? बस आतंकवाद के सम्मुख ‘जी हुजूर’कह सकते हैं और अपनी नग्नता का त्रिविमीय रूप बना सकते हैं। करें भी क्या? इन्हें अपनी इस कायराना प्रवृत्ति और बदगुमानी का अभ्यास हो गया है। फ़िर कुछ भी कर गुजरने का संकल्प तो खोयेगा ही। सुना नही है –
“अभ्यास की आवृत्ति से संकल्प की असहायता आ जाती है।”