मैं यह सोचता हूँ बार-बार की क्यों मैं किसी जीवन-दर्शन की बैसाखी लेकर रोज घटते जाते अपने समय को शाश्वत बनाना चाहता हूँ? क्यों, यदि सब कुछ क्षणभंगुर है तो उसे अपनी मुट्ठियों में भर कर कालातीत कर देना चाहता हूँ? मैं क्यों लगातार बीत रहे इस समय से आक्रांत हूँ? मैं बार-बार सोचता हूँ, पर समझ नहीं पाता। अभी तो आगे बात करनी है मुझे कि क्यों घर फूंक मस्ती की लुकाठी लेकर चल रहा हूँ मैं!
मेरी समझ शायद इसलिए नहीं बन पाती कि समय के सत्य को नहीं समझा मैंने। मैंने पटरी नहीं बैठाई सामयिकता से। मुझे लगता है मैंने कुछ स्वप्न बुने, उनसे आदर्शों का खाका खींचा और भविष्य की अतिरंजित कल्पना में वर्तमान का सत्य मैंने भुला दिया। मैं समझ नहीं पाया कि सामयिक जीवन की राग-रंजित तात्कालिकता को क्षणवादी चेतना से मुक्त नहीं किया जा सकता।
ब्लॉगिंग से साहित्य और समाज बदलने का किंचित् भाव
मेरे चिट्ठे लिखने की शुरुआत अचानक ही हुई। रवीश कुमार की ब्लॉग-वार्ता पढ़कर और रचनाकार के सापेक्ष उद्देश्य को देखकर मैंने चिट्ठाकारी से समाज को दिशा देने, साहित्य को समृद्ध करने का किंचित विचित्र भाव मन में पाल लिया था। मैंने यथार्थ को भुला दिया था कि संसाधनों के सीमित होने का दंश क्या मेरे इस अभिनव प्रयास (मेरे लिए) को नहीं झेलना पडेगा? कि क्या किसी-किसी तरह लिख कर मैं श्रेष्ठतम की अभिव्यक्ति कर पाउँगा? पर मैंने तात्कालिकता को क्षणवादी चेतना से मुक्त कर शाश्वत जीवन-बिन्दु पर स्थापित करने की चेष्टा की थी।
यथार्थ को अस्वीकार करने का कछुआ धर्म
और तब, जब पिछले चार दिन लिखा नहीं पाया, कहीं टिप्पणी नहीं दी- तो लगा कि मैंने अपने जीवन के यथार्थ को अस्वीकार करने का कछुआ-धर्म निभाया था। उस कस्बे से जिसमें बिजली आठ घंटे आती हो-वह भी अनियमित; उस कस्बे से जिसमें एकमात्र इन्टरनेट सेवा प्रदाता बी०एस०एन०एल० बार-बार अपनी आँखें बंद कर लेता हो; उस परिवार का सदस्य होकर जिसमें जीवन व्यतीत कर लेने की ही सामर्थ्य विकसित हो पायी हो, और वैसे व्यक्ति होकर जो स्वतः में आत्मनिर्भर बनने की और प्रयत्नशील हो- ब्लॉग्गिंग करना मुश्किल-ए-जान है।
आज जब यह प्रविष्टि लिख रहा हूँ, तो एक संतोष-सा मालूम पड़ रहा है, क्योंकि पिछले चार दिनों के अनुभवों से मेरे प्रथित जीवन-दर्शन की वैशाखी मेरे हाथों से फिसल गयी है। पर मैंने अपने स्वप्न नहीं खोये, अपनी रीति नहीं बदली। मैं भी अब उसी मस्त की घर फूंक मस्ती की लुकाठी लेकर चल रहा हूँ जो बीत रहे हर क्षण को ओढ़ सकता है, बिछा सकता है।
मैं समझ गया हूँ कि मेरी सार्थकता व्यतीत में नहीं है, भविष्य में भी नहीं। इसलिए सामयिकता को जितना भर सकूं उतना बाहों में भर कर, जितना प्यार दे सकूं उतना प्यार देकर जीने योग्य ही नहीं, सुंदर बनाना होगा। यह लेखन, यह साहित्य इसी प्रयत्न के परिणाम हैं।