प्रातः काल है। पलकें पसारे परिसर का झिलमिल आकाश और उसका विस्तार देख रहा हूँ। आकाश और धरती कुहासे की मखमली चादर में लिपटे शांत पड़े हैं। नन्हा सूरज भी अभी ऊँघ रहा है। मैं हवा से अंग छिपाए परिसर में टहल रहा हूँ। एक ही, बस एक ही नन्ही भोली चिड़िया फुदक-फुदक कर चोंच में कीड़े पकड़ रही है। उन्हें फटे चीथड़े की तरह उछालती है और निढाल कर खा जाती है।
यह वही कीट है जो धरती के भारीपन को भुरभुरा बनता है। परती को बाँझ का कलंक नहीं लगने देता है। निर्विष है। निरापद है। निष्प्रयोजन नहीं है। निरंकुश नहीं है। चलता है तो खलता नहीं है। विकलता में उबलता नहीं है। उसकी तबियत खराब नहीं होती। केंचुआ है वह। क=जल। जैसे ‘कंज’, जल में जन्मा। के= जले। च्युतः=डाल दिया गया। केंचुआ= जल में गिरा दिया गया। वंशी लगाने वाला मछुवारा केंचुआ फंसा कर मछली बाहर खींच लेता है। इतना तुच्छ है, इतना निरीह है कि प्रतिरोध भी नहीं करता। बेचारा।
इसी केंचुए को चिड़िया चीथड़े में बदल रही है। केंचुए की तबीयत और अपनी आदमीयत की तुलना करने लगता हूँ। यदि उसे मरने देता हूँ तो निरीह के वध का द्रष्टा बना अपराध बोध से भरता हूँ। यदि चिड़िया को उड़ा देता हूँ तो भींगी सुबह में एक नन्हें पखेरू को भूख से बिलखने देने का अपराधी बनता हूँ। क्या करुँ, क्या न करुँ? भाग्य और कर्म की श्रेष्ठता का सनातन प्रश्न सामने खडा हो जाता है। जगद्गुरु कृष्ण की पंक्ति बुदबुदाने लगता हूँ-
“किं कर्मं किं अकर्मं वा मुनयोप्यत्र मुह्यते”।
‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ को सहजता से स्वीकार करने में तिलमिला जाता हूँ। पर नियति की गति निराली है, प्रकृति का ढंग अपना। लेकिन, लेकिन ही बना है। केंचुए का मरना, पक्षी का पेट भरना- दोनों चक्की के पाटों में मैं पिस रहा हूँ।