आलोचना प्रत्यालोचना एक ऐसी विध्वंसक बयार है जो जल्दी टिकने नहीं देती। प्रायः संसार में इसके आदान कम, प्रदान की उपस्थिति ज्यादा देखी जाती है। मेरे जीवन के क्षण इस बयार में बहुत बार विचलित हुए हैं। अभी कल की ही बात है। एक व्यक्ति ने मेरी रहनी पर रहम नहीं किया। मैं जिस मनोभूमि में कुछ लिखता पढ़ता हूँ, उस पर उसकी खरी टिप्पणी थी कि ‘कुछ नहीं मिलेगा इससे। तेरा स्वान्तः सुखाय दो कौड़ी का है। दुनियादारी का दामन पकडो। क्यों बर्बाद हुए जा रहे हो। “अर्थागमोनित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रिय वादिनी च” का सूत्र भूल कर भटक गए हो, मूर्ख कहीं के।
सामान्यतः यह देखा गया है कि आदमी दूसरे की आलोचना करने में आनंदित होता है, पर छिद्रान्वेषण की आँख यदि अपनी और खुल जाय तो अपना खालीपन भर जाय। ऊंची चढ़ाई चढ़ने के लिए हमें उन सीढियों पर अधिक ध्यान रखना होगा जो स्वयं हमारे पैरों के नीचे अवस्थित हैं। आलोचना अभिमान का ही पोषण है। प्याज-लहसुन को कूट कर यदि किसी पात्र में रखा जाय, और फ़िर उसे सैकड़ों बार क्यों न धोया जाय, उसकी गंध नहीं जाती। वैसे ही आलोचक में अभिमान का चिन्ह कुछ न कुछ रह ही जाता है।
प्रसिद्द दार्शनिक ‘देकार्त’ से उसके प्रति किए गए व्यवहार का बदला लेने की बात उसके शुभेच्छु कहते रहे; पर वे धीरे से बोले-
“जब कोई मुझसे बुरा व्यवहार करता है, आलोचना की आग में जलने के लिए मुझे धकेलता है, तो मैं अपनी आत्मा को उस ऊंचाई पर ले जाता हूँ, जहाँ कोई दुर्व्यवहार उसे नहीं छू सकता। आवेश और क्रोध को वश में कर लेने से शक्ति बढ़ती है।” —‘देकार्त’
‘रविन्द्र’ की आलोचना से तिलमिलाए ‘शरदचंद्र’ ने जब उनके विरुद्ध कुछ करने, कहने की बात उनसे कही तो गुरुदेव बोले –
“शरद बाबू ! मैं स्वप्न में भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं कर पाउँगा, जैसा वे कर रहे हैं । मेरी चेतना के वातायन से धैर्य, सहिष्णुता और सद्भाव का चंद्र झाँक गया । जो हो, वही तुम्हारा स्वधर्म है। “
“All is well and wisely put.”
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