बिना किसी बौद्धिक शास्त्रार्थ के प्रयोजन से लिखता हूँ अतः ‘हारे को हरिनाम’ की तरह हवा में मुक्का चला लेता हूँ, और अपनी बौद्धिक ईमानदारी निभा लेता हूँ। स्वान्तःसुखाय रचना भी विमर्श के झमेले में पड़ जाय तो क्या करें । रचना का स्वान्तःसुख समझते शास्त्री, शास्त्रार्थ के बाद शास्त्र की भी तो सुनें। स्वान्तः सुखाय क्या है शास्त्र की दृष्टि में? उपनिषद कहता है-

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः,
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा
तं आत्मस्थं येनुपश्यन्ति धीराः
तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम।

जब वह (परमात्मा) सर्वभूतेषु गूढ़ है , सबमें छिपा है , सर्वव्यापी सर्व अंतरात्मा है तो उसके सुख के लिए किसी एक की मचलन सभी प्राणियों के सुख के लिए क्यों नहीं हो सकती ? एक की अंतरात्मा का सुख सबकी अंतरात्मा का सुख हो सकता है । परमात्मा ने अपने को लक्षित करते हुए अर्जुन से कहा था –

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूतेषु भारत।

गीता

तो जब वह परमसुख का सुख परमात्मा ही सबकी आत्मा है, सबका अंतःकरण है तो एक का स्वान्तःसुखाय अखिल जगत का स्वान्तःसुखाय क्यों नहीं हो सकता, हो सकता है ।

स्वान्तःसुख या सर्वान्तःसुख?

स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा  की विनीत उद्घोषणा करने वाले तुलसी का स्वान्तःसुख जन जन का स्वान्तःसुख नहीं हो गया, तो क्या रचनाकार तुलसी को साहित्य स्रष्टा की बिरादरी से बहिष्कृत कर देंगे? लिखा गया, जन-जन को उस आस्वाद को देने की विकलता हुई और वह जगतव्यापी हो गया- कुछ ऐसी ही स्वान्तःसुखाय रचना होती है। आरोप तो यही है कि यदि स्वान्तः सुखाय रचना है तो फ़िर जन- जन को देने की विकलता क्यों हो गयी? तो वस्तुतः वह स्वतः संभूत बाढ़ की तरह होती है जो किनारों को चूमती दुलराती बढ़ी चली जाती है; और न चाहते हुए भी ‘वह आयी थी, और कुछ अप्रत्याशित देकर गयी’ ऐसा सबको अनुभूत होता है-

बाढ़ प्रगाढ़ छलक पुलिनों पर छाप छोड़ जाती है
कभी सिन्धु की गहराई भी साफ़ झलक जाती है।

जानकीवल्लभ शास्त्री

अतः स्वान्तःसुखाय रचना सर्वान्तःसुखाय बन जाती है ।

बड़े विनीत भावः से कह रहा हूँ कि राम करें स्वान्तःसुखाय रचनाएँ ब्लॉग, इंटरनेट की प्रभूत संपत्ति बन जाँय जो हर दर्शक और आस्वादक को बिना इति अथ के रसानुभूति में डुबोती रहें ।