तुम अब कालेज कभी नहीं आओगे। तुम अब इस सड़क, उस नुक्कड़, वहाँ की दुकान पर भी नहीं दिखोगे। तुम छोड़ कर यह भीड़ कहीं गहरे एकान्त में चले गये हो। पता नहीं वह सुदूर क्षेत्र कैसा है? पता नहीं वह राह कैसी है, पथरीली राह या कँटीली? अन्धकारमय या सर्वत्र प्रकाशित?
तुम कल तक मेरी कक्षा के विद्यार्थी थे, वही तीसरी बेंच पर बैठे हुए। टुक-टुक देखते, निहारते भर आँख मुझे- अब तुम वहाँ नहीं रहोगे। मेरे कहे गये हर एक शब्द को अपनी जीभ से चखते, स्वादते, तृप्त होते मैं देखता था तुम्हें। मैं निरखता था कि मेरा कहा एक-एक शब्द तुम्हारी आत्मा की थाती बन जाता था।
मैं साहित्य पढ़ाता था तुम्हें। तुम्हें ही क्यों, पूरी कक्षा को। पर बार-बार तुम ही खयाल में क्यों आ रहे हो? क्योंकि तुमने मेरी कही बातें सच मान लीं। कमबख्त साहित्य भी प्रेम, सौन्दर्य, श्रृंगार की चाकरी करता है कक्षाओं में, पाठ्यक्रमों में। कविता पढ़ाते वक्त देखता था तुम्हें – तुम्हारी अनुभूतियों के प्रत्यक्षीकरण के साथ। भावजगत की जितनी स्वतंत्रता मेरी कविता का कवि लेता उससे कहीं ज्यादा स्वतंत्र तुम अपनी अनुभूतियों में हो जाया करते थे। तुम्हारी तल्लीनता मुझे भी तल्लीन कर देती थी। पर अब तुम नहीं रहोगे मेरे एक एक शब्द को पीने के लिये, फ़िर कहीं ठहर न जाय मेरा यह शब्द-प्रवाह।
मैं क्या जानता था कि इतना गम्भीर हो जाते हो तुम इस भाव-यात्रा में। कविता की रहनुमाई का जीवन गढ़ लिया है तुमने – नहीं पता था। मैने उस दिन कविताओं का अर्थ बताते, प्रेम में स्व-विसर्जन की भूमिका तुम्हारे ही लिये गढ़ी थी, नहीं जानता था। काश समझ पाता कि ‘जियेंगे तो साथ, मरेंगे तो साथ’ का सूत्र-सत्य बहुत गहराई से आत्मसात कर लिया था तुमने उस दिन।
तुमने क्यों नहीं समझा कि साहित्य मनुष्य के सौन्दर्यबोध, कर्म और विचार का समुच्चय है। ज्ञान, क्रिया और ईच्छा की त्रिवेणी साहित्य में ऐसा संगम निर्मित करती है जिसे जीवन कहा जा सकता है। मैं शायद समझा न सका तुम्हें कि केवल भाव-भावना जीवन का निर्माण नहीं करती। कर्म और भाव दोनों मिलकर मानव-जीवन का निर्माण करते हैं।
मेरे साहित्य के विद्यार्थी! जीवन का ऐसा निषेध? साहित्य का तो उद्देश्य ही है व्यक्ति-चेतना का रूपायन और व्यष्टि का उन्नयन। इससे प्रभावित, निर्मित होता है जीवन और फ़िर बनती है जीवन के प्रति आकांक्षा। यह जीवन समाज का प्रतिरोध भी हो सकता है और प्रस्ताव भी। मेरे प्यारे! तुम जान नहीं सके कि अनुकूलता या विपरीतता उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितनी यह कि जीवन में श्रद्धा-भाव की स्वीकृति हो।
कल अखबार में पढ़ा, तुम इस जीवन से विरम गये। पकड़कर उसका हाथ, जिससे साथ जीने-मरने की कसमें खायीं थीं, रेल की पटरी पर मुँह-अँधेरे ही सो गये थे तुम। फ़िर ट्रेन आयी, गुजर गयी। तुम दोनों भी उबर गये पथरीली राह से।