कैसे मुक्ति हो? बंधन और मोक्ष कहीं आकाश से नहीं टपकते। वे हमारे स्वयं के ही सृजन हैं। देखता हूं जिन्दगी भी क्या रहस्य है। जब से जीवन मिला है आदमी को, तब से एक अज्ञात क्रियाशीलता उसे नचाये जा रही है। अभी क्षण भर का हास्य देखते-देखते विषाद के गहन अन्धकार में डूब जाता है।
जहाँ वचन की विद्ग्धता और स्नेहसिक्त मधुमय वाणी का प्रवाह था वहीं अवसाद की विकट लीला प्रारंभ हो जाती है। हृदय में जहाँ उल्लास का सिंधु तरंगित होता था, वहीं पीड़ा और पश्चाताप का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। भविष्य जिस प्रसन्नता की रंगभूमि बनने की पृष्ठभूमि रच रहा था, वही न जाने क्यों चुभन से भरा हुआ कंटकमय वर्तमान बन जाता है। इस अस्ति और नास्ति के खेल में जूझता व्यक्ति किस घाट का पानी पिये? गजब स्थिति हो गयी है, नीरज के शब्द याद आ रहे हैं-
कुछ ऐसी लूट मची जीवन चौराहे पर
गोपाल दास ‘नीरज’
खुद को ही खुद लूटने लगा हर सौदागर।
तो कैसे मुक्ति हो इस अगति से?
“If winter comes can the spring be far behind?”
P. B. Shelley