हम घोर आश्चर्य और निराशा के घटाटोप में घिर गये हैं। अपने पूर्वजों पर दृष्टि डालते हैं तो देखते हैं कि बहुत से लोग आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़े वर्ग के सदस्य न थे। किंतु उन्होने अपनी दौलत को बजाय किसी निजी लक्ष्य में उपयोग करने के देश हित में लगा दिया। वहीं स्वतंत्रता के बाद पढ़े-लिखे और आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग अपने सार्वजनिक जीवन को ही मात्र सुधारने में लगे हुए हैं। उन्होंने ‘जमीन चोरों’ के लिये देश सेवा छोड़ दी है।
गत छः दशक से ‘सेन्सिबल’ कहे जाने वाले लोगों ने इस देश को अनाथ बना दिया है। लोकतंत्र को भीड़तंत्र बना दिया गया है। अंग्रेजों को क्या इसीलिये भगाया गया था कि इस देश की बोटी-बोटी नोंच लें कि इसकी लाश भी पहचानी न जा सके। समाजवाद की व्याख्या हर नेता अपने-अपने ढंग से अलग-अलग कर रहा है, तभी तो हमारा यह प्यारा देश समाजवाद की गोद में कराह रहा है।
मैं ही अकेले अब देखता सुनता नहीं, अब पोते-पोतियों को कंधे पर लादकर बड़े-बूढ़े सभी देख रहे हैं। बाज़ार में कीमतें आसमान छू रही हैं। आंदोलन होते हैं। हमारी सजग सरकार तुरंत दुकानदारों को कड़वी धमकी देती है और जनता को मीठा आश्वासन। इसके बावजूद कीमतें बढ़ती रहती हैं। कोई चारा न देखकर असहाय जनता इन्हें सिर-माथे ले लेती है। यही बार-बार होता है। वाह री नासमझ जनता। हमारी समाजवादी सरकार कोई अच्छा काम क्यों करने लगी? फ़िर बढ़ी कीमतें, फ़िर हाहाकार। एक उलझन सुलझाने के लिये हजारों उलझने पैदा कर दी जाती हैं। समाजवाद की इस नौटंकी को अनेकों वर्षों से हम बेबस निहार रहे हैं।
कैसे आयेगा सच्चा समाजवाद
सुना है पश्चिम जर्मनी के नेता ‘डा0 एरहार्ड’ का नाम, जिसने भारत से कहीं अधिक विषम परिस्थितियों से गुजर रहे अपने देश में ग्यारह वर्षों में ही सच्चा समाजवाद ला कर संसार को आश्चर्यचकित कर दिया। एक ओर तो उन्होंने मुद्रास्फ़ीति कम की और दूसरी ओर मूल्यवृद्धि पर लगाम लगायी। मजदूरों से हड़ताल न करने, मजदूरी न बढ़ाने की अपील की, बल्कि उन्हें उत्पादन बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित किया। देश में व्याप्त कंट्रोल कोटा-परमिट का धंधा खत्म करके सरकारी फ़िजूलखर्ची कम की। फ़ालतू महकमों को बंद करके सरकारी नौकरों की भीड़भाड़ में छंटनी की। मूल्यों में कमी हो जाने से आमदनी में होने वाली बचत बैंकों में जमा करने के लिये प्रोत्साहन दिया। करों में कमी कर दी। कहीं एकाधिकार न हो जाय, अतः हर क्षेत्र में पूर्ण नियंत्रण रखा। विदेशी व्यापारों पर हावी होने के लिये उद्योगपतियों को बढ़ावा दिया।
लेकिन हमारा समाजवादी नेतृत्व इसके लिये कभीं तैयार नहीं हुआ। विलासिता और आरामतलबी में यह संभव भी नहीं है। सन् 1973 में जब यही बात संसद में उठायी गयी कि वेतन, भत्तों और सुविधाओं सहित एक संसद सदस्य पर सरकार प्रतिमाह पाँच हजार रुपये खर्च करती है तो अध्यक्ष महोदय तिलमिला उठे थे। पर, आज तो महाराजाओं जैसी सुविधाओं को हस्तगत करने के लिये देशनायक मारामारी कर रहे हैं। हमारे लीडर समाजवादी हैं। अपने समाज का हमेशा ध्यान रखते हैं। कब पलटेगा पासा?
अब बहुत हो चुका। जनता बिना कहे नहीं रहेगी अब-
मेरा दिल फेर दो मुझसे ये सौदा हो नहीं सकता।