पात-पात में हाथापायी
बात-बात में झगड़ा
किस पत्थर पर पता नहीं
मौसम ने एड़ी रगड़ा।

गांव गिरे औंधे मुंह
गलियां रोक न सकीं रुलाई
’माई-बाबू’ स्वर सुनने को
तरस रही अंगनाई,
अब अंधे के कंधे पर
बैठता नहीं है लंगड़ा।

अंगुल भर जमीन हित
भाई का हत्यारा भाई
हुए बछरुआ परदेशी
गैया ले गया कसाई,
गोदी बैठा भों-भों करता
झबरा कुत्ता तगड़ा।

पूजा के दिन गंगाजल की
घर-घर हुई खोजाई
दीमक चाट रहे कूड़े पर
मानस की चौपाई,
कट्टा रोज निकाल रहे हैं
बन कर पिछड़ा-अगड़ा।

Categorized in:

Poetry,

Last Update: September 22, 2025

Tagged in: