कि होली का होला।
कइसे तोंहके हाल बताई
कवन तरीके से समझाई
कइसन बखत रहल हऽ ऊ भी
कवने भाषा में बतलाई,
उछरत रहल बांस भर मनवां
जमत रहल जब गोला।
छैल चिकनियां छटकत रहलन
झार के अद्धी ढाका
केसर के संग लप्पा मारत
रहलन जम के काका,
लगत रहल गुलाल जब माथे
खिलल रहल तब चोला।
होलकी गड़तय करत रहल सब
फगुआ क तइयारी
टेसू के रंग से भर-भर के
चलत रहल पिचकारी,
अब तऽ सब फुटपाथ बइठके
झोरिहैं चउचक छोला।
झमकत रहल झाल चालिस दिन
बुड़त रहल रंग चीरा
रसिया फाग कबीरा,
रंगभरी के सब ललकारें
जीयऽ बाबा भोला।
छनत रहल जब दिव्य ठंडई
बोलत रहल मलाई
चइता के संग भिड़त रहल
सप्तम सुर में शहनाई,
अब नऽ जहां नजर जाला
सब जगह देखाला पोला।
होत रहल सतरंगी अंगिया
जुटत रहल जब टोली
जमुना जुम्मन हिलमिल के
खेलत रहलन हऽ होली
आज तऽ सब सीटे वाले
देखात हउवन बड़बोला।
आर पार सब होत रहल
पैदल बुढ़वा मंगल में
मैना राउरवी तान लड़ावत
रहलिन इऽ दंगल में,
सोच-सोच के ऊ जुग कऽ
हौ दिल पर पड़ल फफोला।
रचना : ’ख़ाक बनारसी’
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