कुछ दिनों पहले चिट्ठा चर्चा में कविता जी ने ’माँ’ पर लिखी कविताओं की भावपूर्ण चर्चा की थी। तब से ही मन में इसी प्रकार की कुछ कविताओं की पंक्तियाँ बार-बार स्मरण में आ रहीं थीं। बहुत याद करने पर, और अपनी डायरियों को खँगालने पर मेरी प्रिय कविताओं में शुमार यह कवितायें मिल ही गयीं। इन तीन कविताओं में पहली कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ, शेष अगली प्रविष्टियों में।
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इन कविताओं का सौन्दर्य देखिये, और निरखिये माँ के अनगिनत चित्रों में से यह नौ चित्र ।
एक
मिट्टी के बर्तन में
माँ
चुका हुआ और
आने वाला दिन रखती है ,
माँ की उमर
इसी तरह जाती है।
दो
झाँसी की रानी की तरह
माँ
बच्चे को पीठ पर बाँधे
पत्थर तोड़ती है
पत्थर में कैद
चिटकती आग
माँ का पेट है
माँ रोटी नहीं
हवा खाती है।
तीन
दो पत्थरों के बीच
अन्न पीसते-पीसते
माँ की नरम हथेलियाँ
बंजर हो गयी हैं
हाथ की रेखायें
नहीं पढ़ी जातीं
सिर्फ देखी जाती हैं
एक मुट्ठी दाल के लिये
माँ दस सेर
दाल पीसती है।
चार
जंगल
माँ को पहचानता है
रोज लकड़ियों के गट्ठे बना कर
माँ सिर पर ढोती है
बाजार खरीदता है
एक दिन
सिर पर रखी लकड़ियाँ
माँ के ऊपर गिर जाती हैं।
पाँच
मजदूरनी माँ
खेत के खेत काट कर
अनाज के इतने करीब
होने के बाद भी
पेट पर बँधी
पट्टी नहीं खोल पाती।
छह
भाग्य को
कोसते-कोसते
और भाग्य की राह
देखते-देखते
माँ की आँखें थक चुकी हैं
गेहूँ दाल लाते समय
अगरबत्ती की पुड़िया
नहीं भूलती।
सात
फटी साड़ी
माँ का सिर ढाँकती है
संस्कृति
पीछा नहीं छोड़ती
माँ का पूरा मन
पल्लू संभालने में
लगा है।
आठ
गोद में
बैठा बच्चा
माँ को भीख माँगते देखता है
बच्चे की खातिर
कहती माँ
हाथ फैलाती है
बच्चे का कद
माँ की तरह
बढ़ रहा है।
नौ
पूरी ठंड
माँ की देह पर
भागती रही
लोग गर्म कपड़ों के भीतर
ममत्व के बारे में
सोचते/लिखते रहे
सुबह
माँ के शव में
यात्रा नहीं थी।