आदि दिन को वह जानती है और अन्धकार में वह श्वेताभ जन्म लेती है। नियुक्त स्थान पर अपने प्रियतम से मिलने आने में वह कुमारिका ऋत के विधान को भंग नहीं करती है।
अपनी माँ के द्वारा सजायी-सँवारी दुलहिन की तरह कमनीय, तुम अपने सुन्दर रूप को सबके सामने प्रकट करती हो; ओ री वरदानमयी उषा, और भी व्यापक रूप से प्रकाशमान हो । तुमने जो उपलब्ध किया है. वह और किसी उषा ने उपलब्ध नहीं किया है।
ओ ऋत की किरण-वल्गाओं की अनुसारिणी, हमें प्रत्येक विचार ऐसा दो, जो अधिक से अधिक मंगलमय हो । ओ उषा, तुम्हें सहज ही जगाया जा सकता है, तुम आज हम पर प्रकाश बरसाओ । हममें और ऋत-पुरुषों में तुम्हारी विपुलता व्याप जाये।
’भारती’ (भवन की पत्रिका), २२ अगस्त १९६५ अंक से साभार
उपो रुरुचे युवर्तिन योषा विश्वं जीवं प्रसुवन्ती चरायै
अभूदग्नि समिधे मानुषाणामकर्ज्योतिर्बाधमाना तमांसि।
व्युषा आवो दिविजा ऋतेनाविष्कृण्वाना महिमानमागात्
अप द्रुहस्तम आवरजुष्टमङ्गिरस्तमा पथ्या अजीगः।
अचेति दिवो दुहिता मघोनी विश्वे पश्यन्तुषसं विभातीम्
आस्थाद्रथं स्वधया युज्यमानमा यमश्वासः सुयुजो वहन्ति।
एषा नेत्री राधसः सूनृतानामुषा उच्छन्ती रिभ्यते वसिष्ठैः
दीर्घश्रुतं रयिमस्मे दधाना यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।