कई बार निर्निमेष
अविरत देखता हूँ उसे
यह निरखना
उसकी अन्तःसमता को पहचानना है
मैं महसूस करता हूँ
नदी बेहिचक बिन विचारे
अपना सर्वस्व उड़ेलती है
फिर भी वह अहमन्य नहीं होता
सिर नहीं फिरता उसका;
उसकी अन्तःअग्नि, बड़वानल दिन रात
उसे सुखाती रहती है
फिर भी वह कातर नहीं होता
दीनता उसे छू भी नहीं जाती।
कई बार निर्निमेष अविरत देखता हूँ उसे
वह मिट्टी का है, पर सागर है –
धीर भी गंभीर भी।
एक और कविता: तुम कौन हो?
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