ढोलक टुनटुनाते हुए, इस वर्ष भी गाते हुए बाबा आ गये । हमने कई बार अपना ठिकाना बदला- दो चार किराये के घर, फिर अपना निजी घर; बहुतों की संवेदना बदली- पर बाबा आते रहे । मैं उन्हें मलहवा बाबा (मल्लाह बाबा ) कहता रहा – बहुत बचपन में नहीं , दसवीं में पढ़ते वक्त से । मलहवा बाबा बेरोकटोक आते रहे-मेरे दरवाजे, क्रमशः मेरी संवेदना, मेरे अन्तर्मन की दहलीज पर ।
मलहवा बाबा भिखारी हैं – मेरी बहन (मुझसे काफी छोटी ) मुझे समझाती – इंगिति, इतना भी क्या राग ? बाबूजी मुझे उत्सुक करते कि मलहवा बाबा से उनके गीत सुन आऊं और फिर उन्हें सुनाऊँ । वर्ष में बस एक बार एक दिन के लिये भीख माँगते मलहवा बाबा, ढोलक टुनटुनाते मलहवा बाबा, मछुआरे का गीत गाते मलहवा बाबा – मेरे आत्मीय औत्सुक्य के केन्द्र थे । मैंने पूछा था एक बार – ये एक दिन की भीख से पूरा साल कैसे खा लेते हैं आप ? हँसे – ” गंगा मईया कऽ परताप हऽ बचवाऽ । अधेल्ला में पूरा जीवन बीत जाई । गंगा माई हईं, हँसत मुसकियात जीवन भर रखिहैं।” बाद में बताया बाबा ने – कि यह तो जीवनदायिनी गंगा मईया की वार्षिक पूजा (मल्लाहों/मछुआरों द्वारा की जाने वाली ) का एक उपक्रम मात्र है । मलहवा बाबा ने गंगा की पार उतराई से अपने दोनों बेटों को पढ़ा लिखा कर अफसर बना दिया है । उन्हें धन-धान्य की कमी नहीं । बेटे रोकते हैं उन्हें गली-गली फिरते, गाते-बजाते भीख माँगने के लिये । पर बाबा हैं कि गंगा मईया सर चढ़ जाती हैं उनके – बेटों की हवेली छोड़ अपनी मड़ई में अपनी नाव के साथ गंगा जी के पास दौड़े चले आते हैं । ढोलक उठाते हैं, माँगने निकल पड़ते हैं गंगा मईया के पूजन के निमित्त ( शायद परंपरा हो कि भीख माँगकर पूजना चाहिये ) ।
तो बाबा इस बार भी आ गये । रिकॉर्ड करने के लिये कमजोर मोबाइल ही थी – आपके सम्मुख है बाबा का गाया पार-उतराई का गीत । मछुआरे का एक रानी को पार उतारने के पूर्व का संवाद ।
कठवा में काटि के नइया बनवली हो कि गंगा जी ।
हमरो नइया परवा उतरबा हो कि गंगा जी ।
आज के रइनियाँ रानी बसो मोरे नगरिया हो कि गंगा जी ।
होत भोरवैं परवा उतरबे हो कि गंगा जी ।
[रानी ! काठ को काट-काट कर अपनी नाव बनायी है मैंने, अपनी इसी नाव पर मैं तुम्हें उस पार उतार दूँगा । पर, आज तो ठहर जाओ यहीं- मेरे नगर । ज्यों ही भोर होगी तुम्हें उस पार पहुँचा दूँगा ।]
मरि न जाबे केवटवा भुखिया पियसिया हो कि गंगा जी ।
मरि जइबे जड़वा अस पलवा हो कि गंगा जी ।
आज तूँ का खियइबा केंवटवा हमरी भोजनियाँ हो कि गंगा जी ।
काऽ हो देबा ओढ़ना डसवनाँ हो कि गंगा जी ।
[केवट ! यहाँ कैसे ठहर जाऊं ? भूख-प्यास से मर न जाऊँगी ! ठंड और पाला भी तो ऐसा कि जान न बचेगी । और खाउँगी क्या ? (यहाँ है ही क्या ? मैं ठहरी रानी !), और सोऊँगी कैसे ? ओढ़ने-बिछाने के लिये क्या दोगे ?]
दिनवाँ खियाइब रानी रोहू जल मछरिया हो कि गंगा जी ।
रतिया के ओढ़ाइब महाजलिया हो कि गंगा जी ।
[रानी ! दिन में तो रोहू मछली खिलाऊँगा-भूख मिट जायेगी ; और रात को ओढ़ाने को मेरी मछली का जाल तो है ना ! ]
एक तऽ करुवासन केंवटवा रोहू तोर मछरिया हो कि गंगा जी ।
दुसरे करुवासन महाजलिया हो कि गंगा जी ।
[केवट ! कैसे खाउँगी मैं रोहू मछली ? वह तो कड़वी है । और तुम्हारा जाल ओढ़कर भी न सो सकूँगी – वह भी तो अजीब सी गंध देती है ।]
घरवाँ तऽ रोअत होइहैं गोदी के बलकवा हो कि गंगा जी ।
कैसे बसूँ तोहरि अब नगरिया हो कि गंगा जी ।
[केवट ! मुझे उसे पार ले चलो ! मेरे गोद का बालक घर पर बिलख रहा होगा मेरे लिये । उसे छोड़ कर कैसे ठहर जाऊँ यहाँ ?]
अरे अगिया लगावा रानी गोदी के बलकवा हो कि गंगा जी ।
बस जइबू हमरी अब नगरिया हो कि गंगा जी।
रानी ! आग लगाओ गोद के बालक को । इतना क्या सोचना ! उसे भूल जाओ और यहीं ठहर जाओ ]
अगिया लगइबै केंवटवा रोहू तोर मछरिया हो कि गंगा जी ।
बजर न परैं तोहरे महाजलिया हो कि गंगा जी ।
तोहरे ले सुन्दर केंवटवा घरवाँ मोरा बलमुआ हो कि गंगा जी ।
कचरत होइहैं मगहिया बीड़वा पनवाँ हो कि गंगा जी ।
[केवट ! आग तो लगाउँगी मैं तुम्हारी रोहू मछली को (इसका ही प्रलोभन था न !) । तुम्हारी जाल पर आफत आ जाये ! क्या तुम नहीं जानते ? तुमसे सुन्दर मेरा प्रियतम मुँह में मगही पान दबाये घर पर बैठा मेरी राह देख रहा होगा ।]
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