पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -१
पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -२
पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -३ से आगे…..
शायद इसीलिये —
थपेड़े खा-खा कर सुरक्षित-खामोश बच जाने को
धार की, कगार की चट्टानें होती हैं ।
शायद इसीलिये होते हैं
मथ-झकझोर दिये जाने के बाद
वापस निष्कम्प पड़ जाने को वृक्ष ।
अधिक क्या कहा जाये —
शायद इसीलिये
होते हैं जल-डूबे कमल-पत्र ।
कितना बेकार था, कितना अनावश्यक था
कृष्ण का उपदेश वह ।
आसक्त योगी वह, आसक्त । और उसने
देनी चाही थी शिक्षा अनासक्त योग की ।
अब कि जरूरत थी — दी जाय शिक्षा हमें
आसक्त योग की, आसक्त ।
अनासक्त योगी तो जन्मना ही हैं हम ।
और इस लिये —
(कोई चिन्ता की बात नहीं )
आश्वस्त हो जाना चाहिये हमें
कि चूँकि अन्दर के अन्दर, के अन्दर,
के अन्दर हमारे
वह मुक्त जीव, मुक्त हंस आदमी है
आँख-बिना, कान-बिना….बिनाओं-सम्पन्न वह
और, त्वचा उसकी है गैंडे की —
इस लिये
बदल नहीं सकते हम, गल नहीं सकते
और ढल नहीं सकते दूसरों के ढांचों में ।
और — कुछ भी ऐसा ( अहित के) हम कर नहीं सकते
जो — दूसरे के (हित के ) लिये हमें न्यौछावर करवा दे ।
बे-असर अपराजेय हम ।
और इसी लिये —
(कोई भय की है बात नहीं )
हमें आश्वस्त हो जाना चाहिये :
हम मर नहीं सकते – कोई भी मौत और,
सिवा एक मौत के —
सिर्फ एक मौत के —
पाशविक मौत के,
देहावसान के ।
अस्तु ।
ओ हमारे अन्दर के अन्दर, के अन्दर, के अन्दर
अवस्थित, समाधिस्थ कैवल्य जीव !
इस लिये, इसी लिये —
तेरे कृतज्ञ हम, मनाते हैं उत्सव ।
करते हैं तुझे नमस्कार
रोज़ —
एक-एक बार, दो-दो बार,
पाँच-पाँच बार….
बार-बार ।
—-पानू खोलिया (ज्ञानोदय : दिस० ’६९-जन० ’७० अंक से साभार )