सच्चा शरणम् पर महात्मा बुद्ध के जीवन पर एक नाटक पूर्व में प्रकाशित किया गया है। महात्मा बुद्ध के साथ ही अन्य चरित्रों का सहज आकर्षण इन पर लिखी जाने वाली प्रविष्टियों  का हेतु बना और इन व्यक्तित्वों का चरित्र-उद्घाटन करतीं अनेकानेन नाट्य-प्रविष्टियाँ लिख दी गयीं। नाट्य-प्रस्तुतियों के क्रम में अब प्रस्तुत है अनुकरणीय चरित्र राजा हरिश्चन्द्र पर लिखी प्रविष्टियाँ। सिमटती हुई श्रद्धा, पद-मर्दित विश्वास एवं क्षीण होते सत्याचरण वाले इस समाज के लिए सत्य हरिश्चन्द्र का चरित्र-अवगाहन प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी। ऐसे चरित्र दिग्भ्रमित मानवता के उत्थान का साक्षी बनकर, शाश्वत मूल्यों की थाती लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और पुकार उठते हैं- असतो मां सद्गमय। पिछली प्रविष्टियों राजा हरिश्चन्द्र-एक एवं राजा हरिश्चन्द्र-दो से आगे।


राजा हरिश्चन्द्र: द्वितीय दृश्य

(राजमहल का अंतःप्रकोष्ठ। राजा अनमने से घूम रहे हैं। रानी अचानक उठ कर बैठ गयी हैं।)

राजा:(शून्य में ऊपर निहारते हुए) पुकार रहा हूँ। कब से, कब से पुकार रहा हूँ। कल भी पुकारूँगा। जब तक प्राण हैं, तब तक पुकारूँगा विप्रवर! तुम सुन रहे हो, तुम सुनोगे और मुझे कृतार्थ करोगे! मंगलमय, तुम्हारा विधान मंगलमय है। विस्मृत मत कर देना जीवनधन। हम पर कृपा करो, हमारी प्रार्थना सुन लो। 

रानी: (उठकर पास जाती है) क्या है प्राणनाथ! कहाँ खोये हैं, किसे पुकार रहे हैं?

राजा: प्रिये क्या बताऊँ! स्वप्न में कहूँ या जागरण में ही। इसी कक्ष से किसी ने मुझे वातायन से बाहर खींच लिया। देखा, रक्तवर्ण की टेड़ी टूटी हुई उल्काएँ आकाश से पतित हो रही हैं। सूर्य मंडल से निकल कर रक्तवर्ण की मलिन विद्युत चन्द्रमंडल में प्रवेश कर रही है। भैंसे की आकृति वाले बादल एक पर एक चढ़कर दौड़ रहे हैं। धूम्रवर्णी संध्या क्रमशः मुझे घेरने चली आ रही है। प्रकृति अँगुली उठा कर कह रही है कि चेतो! मूर्तिकार की सर्वश्रेष्ठ कृति, सृष्टि का उपहार, पृथ्वी का सौन्दर्य पीड़ा में पनपता है। यह सनातन नियम है। 

रानी: हाय महाराज! यह क्या? 

राजा: और सुनो प्रिये! देखा कि विद्युत और धूलि से युक्त वायु अन्य वायु के साथ उर्ध्वगामी हो रहा है। दक्षिण दिशा की ओर गंधर्वनगर उग आया है। वहीं से एक प्रशस्त भाल ब्राह्मण सन्यासी याचक की मुद्रा में मेरे पास आता है, और वक्रहास के साथ मेरा सारा राजपाट मुझसे माँग लेता है। मैं यह कहकर कि लो दिया, संकल्प-जल धरती पर छोड़ता हूँ। फिर वह तिरोहित हो जाता है। नींच उचट गयी है। वही अब तो राज्याधिकारी है, मैं उसका आज्ञाकारी दास हूँ। मैं उसी विप्र सन्यासी को कब से पुकार रहा हूँ। 

रानी: महाराज! स्वप्न स्वप्न है। सत्य नहीं। सपने को अपना मानकर क्यों बेचैन हो उठे हैं?

राजा: वल्लभे! आँख खुली है तो जो दृश्य है वही सत्य लगता है। पर आँख बन्द हुई तो यह मिथ्या, सपना नहीं हो जाता है। बन्द आँखों से जो दिखायी देता है क्या वह सत्य नहीं लगता है? कौन सत्य है, कैसे निर्णय हो! जब दिया तो दिया। क्या बन्द आँख, क्या खुली आँख- धर्मस्य तत्वं निहितो गुहायाम्”। 

रानी: (टपकते हुए अश्रुजल से आर्द्र कपोलों को पोंछती हुई) हृदय वल्लभे! मैंने भी बड़ा भयंकर स्वप्न देखा है। देखा है कि कनेर वृक्ष के फूल और पत्ते गिर रहे हैं। मैं उसी पुष्पपादप के नीचे बैठी हूँ। ऊपर एक विशाल लौह घंट लटक रहा है जो मेरे सिर पर अब गिरा तब गिरा। लाल माला से मेरे दोनों हाथ बाँध दिए गए हैं। भयंकर विकृत रूप वाली काली स्त्री रोहित को मुझसे दूर कहीं निर्जन झाड़ी में घसीटे लिए चली जा रही है। आप तैल्याभ्यक्त शरीर विभूति पोते लड़खड़ाते किसी कृष्ण सर्प के भय से भागते हुए दीख रहे हैं, और आप जैसा ही वर्णित तपस्वी मेरे भी अत्यंत समीप खड़ा हो गया है। उसकी क्रोधारुण आँखें देख भय से मैं जग गयी हूँ। 

राजा: वल्लभे! शास्त्र वचन और परमात्मा कृपा का अवलंब लो। “जो पै राखिहैं राम तो मारिहैं को रे”। कुल पुरोहित से शांति पाठ करा लो। विप्रों को दक्षिणा देकर संतुष्ट करो। रक्षासूत्र मेरे लाल की कलाई पर बाँध दो ताकि यदि कोई अनिष्ट हो तो उसका निवारण हो जाये। किन्तु स्मरण रखो प्रिये! तुम हरिश्चन्द्र की अर्धांगिनी हो। जागो, उठो। सपनों में ही मत खोयी रहो, साहसी बनो और सत्य के दर्शन करो। उससे, केवल उससे ही तादात्म्य स्थापित करो। छायाभासों को शान्त होने दो। यदि सपने ही देखना चाहो तो शाश्वत प्रेम, अखण्ड सत्य और निष्काम सेवाओं के ही सपने देखो। जागो, जागो। दाता ग्रहीता को पुका रहा है। मेरी पुकार में और बल दो। रोहिताश्व को ईश्वर अनुकंपा का रक्षासूत्र बाँधो। ’मंगलायतनो हरिः’। अरुणोदय बेला उपस्थित होने को है। सुनो, बंदी गा रहे हैं। प्रभात का स्वर मुखर है। राजकाज में हम सेवाभाव से संलग्न हों। संयत हो जाओ। अधमरा जीना भी क्या जीना। वीर वधू हो। जागो, जागो। 

(पर्दा गिरता है।)