यह कथा प्रसंग भारतीय विद्या भवन की पत्रिका ’भारती’ के वर्ष ९, अंक १२ (७ फरवरी १९६५) के अंक से साभार प्रस्तुत है। पिताजी की संग्रहित पुरानी पत्रिकाओं के अध्ययन क्रम में इसे पाया मैंने और सौन्दर्य लहरी का हेतु-प्रसंग होने से (क्योंकि सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्यानुवाद इस चिट्ठे पर क्रमशः प्रकाशित हो रहा है) इस कथा प्रसंग को प्रस्तुत करना ठीक जान पड़ा।
इस प्रसंग के लेखक हैं श्री नरेश चन्द्र मिश्र। लेखक और पत्रिका दोनों से अनुमति नहीं ले सका हूँ, सो क्षमाप्रार्थी।
आचार्य शंकर की दिग्विजय का एक मर्मस्पर्शी कथा प्रसंग
दृश्य प्रथम
प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण चाहते हो संन्यासी?” तांत्रिक अभिनव शास्त्री का क्रुद्ध स्वर शास्त्रार्थ सभा में गूँजा, तो उपस्थित पंडित वर्ग में छूट रही हल्की वार्ता की फुहारें भी शांत हो गयीं।
“प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं आचार्य, शास्त्रार्थ में प्रत्यक्ष है तर्क और प्रमाण है प्रतितर्क”, युवा संन्यासी शंकर आत्मविश्वास भरी हँसी हँस पड़े, “तर्क नहीं तो सारी कल्पना व्यर्थ है, ऐसी स्थिति में पराजय पत्र पर हस्ताक्षर ही उचित होगा।”
“मैं हस्ताक्षर करूँ, पराजय पत्र पर? मदांध युवक।”
उत्तरीय झटक कर अभिनव शास्त्री क्रोधपूर्वक त्रिपुंड के स्वेद विन्दु पोंछने लगे। “ये बाहुएँ पराजय पत्र लिखेंगी जिनके द्वारा हवन कुण्ड में एक आहुति पड़े, तो आर्यावर्त में खंड प्रलय का हाहाकार मच सकता है। यह मस्तक पराजय वेदना से झुकेगा, जो अपनी तंत्र साधना के अहम् से त्रिलोक को झुकाने की सामर्थ्य रखता है?”
“स्पष्ट ही यह सारा प्रलाप आहत मान का प्रण भरने के लिए है, आचार्य! किन्तु शंकर को इससे भय नहीं। उसे तो शास्त्रार्थ में पराजित विद्वान से पराजय पत्र प्राप्त करने में ही…”
“दे सकता हूँ, तू चाहे तो वह भी दे सकता हूँ,” अभिनव शास्त्री झंझा में पड़े बेंत की तरह काँप रहे थे, “किंतु समस्त पंडित जन ध्यानपूर्वक सुनें, मेरा यह पराजय-पत्र इस जिह्वापटु, तर्क दुष्ट, पल्लव ग्राहि मुंडित के समक्ष तब तक तंत्रशास्त्र की पराजय के रूप में न लिया जाय…….”
“कब तक आचार्य श्रेष्ठ?” शंकर के मुख पर अभी भी व्यंग्य की सहस्रधार फूट रही थी। ”
“जब तक मेरा तंत्र रक्त से इस पराजय पत्र का कलंक लेख न धो डाले।”
“स्वीकार है, किंतु अभी तो उस ’कलंक लेख’ पर हस्ताक्षर कर ही दें तंत्राचार्य?”
युवक शंकर ने उपस्थित पंडित वर्ग के चेहरे पर अपने लिए त्रास और भय की भावना पढ़कर भी अपना हठ न छोड़ा।
दृश्य द्वितीय
आश्रम का सारा वातावरण पीड़ा और निराशा भरी मृत्यु का साकार रूप बन गया। कुशासन पर पट लेटे योगी शंकराचार्य के मुँह से निकली आह नश्वर सांसारिक वेदना की क्षतिक विजय का घोष कर रही थी। वैद्यों, शल्य शास्त्रियों ने उन्हें देखकर निराश भाव से सर हिला दिया।
शास्त्रार्थ में अभिनव शास्त्री का मन मर्दन करने के दूसरे ही दिन भगन्दर का जो पूर्वरूप प्रकट हुआ, वह अब योगी शंकर को असाध्य सांघातिक उपासर्गों के यमदूतों द्वारा धमका रहा था।
“आह…माँ….माँ….” कष्ट से करवट बदलते संन्यासी ने अपनी वेदना का चरम निवेदन ममतामयी जननी के दरबार में करके संसारी पुरुषों-सा रूप प्रकट कर दिया।
“बहुत पीड़ा है गुरुदेव?” संन्यासी के रूप में शंकर के अनुयायी से सुरेश्वराचार्य और गृहस्थ के रूप में विदुषी शारदा के पति कर्मकांडी मंडन मिश्र के नाम से विख्यात एक शिष्य ने सह अनुभूति से पीड़ित हो पूछा।
“पीड़ा नहीं, मृत्यु का साक्षात रूप,” वेदना बढ़ी होने पर भी शंकर मुस्करा उठे, “अभिनव आचार्य ने सत्य ही कहा था, किंतु मैंने तंत्र जैसी प्रत्यक्ष विद्या के लिए प्रमाण का हठ किया। अब प्रमाण मिला भी तो ऐसी शोचनीय दशा में जब मैं उसे स्वीकार भी न कर पाऊँगा।”
“क्या रहस्य है गुरुदेव?” चरण-सेवा छोड़कर उत्सुक सुरेश्वर आगे खिसक आये।
“कुछ नहीं। अभिमानी तांत्रिक ने अपनी पराजय का प्रायश्चित कराया है, शंकर से, एकांत वन की गुफा में बैठा वह मारण प्रयोग में लिप्त है।”
“ओह आर्य!” जगद्गुरु के चारों आद्य शिष्य आक्रोशमद पीकर मतवाले हो उठे।
“हाँ आयुष्मानों! तांत्रिक का मारण न सह सका तो यह हंस अब हस्त पिंजर में न रहेगा।”
अन्य तीनों शिष्यों ने तो चिन्ता मग्न हो गुरु चरणों में सर झुका कर विवशता प्रकट कर दी, किंतु चौथा अपने चेहरे पर प्रतिहिंसा की कठोर रेखाएँ छिटकाता वन प्रदेश को चल दिया।
प्रहर भर पश्चात्।
निर्जन वन की उस झाड़-झंखाड़ भरी पहाड़ी गुफा का अंधकार भयंकर चीत्कार से सिहर उठा। शंकर का पुतला बनाकर उसके मर्मस्थानों में लौह कीले गाड़े हुए मारण प्रयोग में रत अभिनव पर प्रतिहिंसा विक्षिप्त शिष्य ने खड्ग का भरपूर प्रहार किया था। कुछ देर पश्चात् रक्त सने शस्त्र से लाल बिन्दु टपकाता वह गुरु के निकट उपस्थित हुआ।
“मैंने उसका शिरच्छेद कर दिया देव”, शिष्य ने रक्त सना खड्ग शंकर के चरणों में रख कर हिंसा वीभत्स स्वर में कहा, “उस पिशाच विद्यादक्ष नर राक्षस का यही प्रतिकार……..”
“शांतं पापं…ये क्या किया मूर्ख,” पीड़ा की अवहेलना कर जगद्गुरु बलात आसन पर उठ बैठे, ” तंत्र विद्या-पारंगत उस अकल्मष मनीषी का वध कर तूने भरत खंड के एक नर रत्न का विनाश कर दिया।”
“इस हत्या का प्रायश्चित कर लूँगा गुरुदेव, किंतु आपका शरीर न रहता तो भरत खंड का सद्यः ज्वलित ज्ञान दीप ही बुझ जाता। उस हानि का शोक भला कैसे…..।”
“उस हानि का पातक भी तेरे ही भाग्य में था,” करुणा मिश्रित विचित्र हँसी हँस कर शंकर ने कहा, “मारण प्रयोग द्वारा उत्पन्न यह व्रण त्रिलोकी का कोई शल्य वैद्य न पूरित कर सकेगा। अभिनव के जीवित रहते मेरे जीवन की भी क्षीण आशा थी, किंतु तूने उस पर तुषारापात कर दिया।”
पश्चाताप हत शिष्य अवाक् था। संन्यासी शंकर ने उसके मन का दूसरा संकल्प ’अपने ही शस्त्र से आत्मघात’ का आभास पा खड्ग उठा कर अन्य शिष्य को दे दिया।
दृश्य तृतीय
मर्म विधे पक्षी के पीड़ित डैनों की अन्तिम उड़ान, जगन्माता के अभयकारी आँचल का नीड़। आद्य शंकराचार्य के अन्तर से उठता स्वर आत्मविश्वास में परिवर्तित हो चुका था।
एक तांत्रिक के सांघातिक प्रयोग का निवारण उस ’महाभय विनाशिनि, महाकारुण्य रूपिणि’ के अतिरिक्त और कौन कर सकता था!
और आत्मविश्वास से प्रेरित योगी शंकर के मुख से मातृ-शक्ति की वंदना के बोल सौंदर्य लहरी बन कर फूट निकले। जगद्गुरु के एक-एक श्लोक व्रणरोपक लेप बनकर, असाध्य व्रण को भरने लगे।
स्तुतिकार शंकर ने अपनी करुणार्द्र वाणी में पहली बार शक्ति के सहज स्नेहमय रूप को स्वीकार किया और शक्ति के बिना अपने पूर्व प्रतिपादित शिव को ’शव’ के समान अर्थहीन, निस्पंद माना।
और एक घन घिरी काली रात जब सारा देश निद्रारूपिणी प्रकृति माँ की गोद में बेसुध था, योगी शंकर ने अपने बाल सुलभ अपराध की स्वीकारोक्ति से माँ के करुण हृदय के तार-तार झंकृत कर दिए।
सौंदर्य लहरी का सौंवा श्लोक पूरा होने से पहले ही जगन्माता ने अपने वरद पुत्र को असाध्य भगंदर से मुक्त कर दिया।