शैलबाला शतक भगवती पराम्बा के चरणों में वाक् पुष्पोपहार है। यह स्वतः के प्रयास का प्रतिफलन हो ऐसा कहना अपराध ही होगा। उन्होंने अपना स्तवन सुनना चाहा और यह कार्य स्वतः सम्पादित करा लिया। यह उक्ति सार्थक लगी- “जेहि पर कृपा करहिं जन जानी/कवि उर अजिर नचावहिं बानी।” शैलबाला शतक के प्रारम्भ में माता के रौद्र रूप का अष्टक विलसित है किन्तु वहाँ क्रोध की आग नहीं करुणा का दूध बह रहा है।

शैलबाला शतक के चार और कवित्त प्रस्तुत हैं! करुणामयी जगत जननी के चरणों में प्रणत निवेदन हैं शैलबाला शतक के यह कवित्त! शतक में शुरुआत के आठ कवित्त काली के रौद्र रूप का साक्षात दृश्य उपस्थित करते हैं। पिछली पाँच प्रविष्टियाँ सम्मुख हो चुकी हैं आपके। शैलबाला शतक के प्रारंभिक चौबीस छंद कवित्त शैली में हैं। यह प्रविष्टि अंतिम चार कवित्त छंदों की प्रस्तुति है। इसके बाद की प्रविष्टियाँ सवैया छंद में रची गयी हैं, जो क्रमशः शीघ्र ही प्रकाशित होंगी। इन प्रविष्टियों के साथ बाबूजी के स्वर में इनका पाठ भी संयुक्त है।

जीवन निररथक मोर बीतल जात मात
कृशगात बिलखात फिरत जग झंझावात में
सुख सम्पति संचय रत वंचित नित होत जात
उलझि अकारथ सुत तात मात भ्रात में
स्वाती कै पानी बन के बरसा तू भवानी
पापी पंकिल पपीहरा के आनन सुखात में
मूढ़ मन मृग नइयाँ भटकि भटकि मरत अम्ब
लोटै दा अपने मंजु चरननि जलजात में ॥२१॥

देखि सुनि कोटि मत माथा चकरात मोर
देवता करोरन बीच केके हम भजबै
सब सुर चाहत सेवकाई पहुनाई सेवा
सम्पति अधिकाई हम कौने भॉंति गॅंजबै
जेके जवन भावै आपन डफली उठावै
आपन आपन राग गावै हम कॉंहें के बरजबै
हम तै सुखकारी शिवमानस विहारी
हिमशैलजा मतारी कै दुआरी नाहिं तजबै॥२२॥

एको बेर आपन पद पंकज देखाय देतू
हमके चढ़ाय निज लीला सुधि पालकी
बॉंहिन के हिंडोला में झुलावा दुलरावा मत
ख्याल करा पंकिल कपूत के कुचाल की
एतना अपने रंग बीच बोरा चभोरा हमै
तोहॅंके छोड़ आवै सुधि आज की न काल की
पंकिल झूमि गावै जस ताली बजावै बोलै
जय जय हिमशैलसुता शंकर शशि भाल की॥२३॥

हउवैं के गनेश के रमेश के दिनेश इन्द्र
बरम्हा बिशुन कोटि देव जानि कछु हम ना
जेकरे पर माई मोरि दाहिनदयाल रहबू
ओह सुत के सौ सौ जमराजो कै गम ना
आउर सुख सम्पति हमैं दिहा चाहे छीन लिहा
एतना मोर जीवनधन होखै कबौं कम ना
रोय रोय तोहरे आगे अम्मा रोज बिनवल करै
पंकिल बेटउवा बउरहवा दीन बम्हना ॥२४॥

क्रमशः–