मैं लिखने बैठता हूँ, यही सोचकर की मैं एक परम्परा का वाहक होकर लिख रहा हूँ। वह परम्परा कृत्रिमता से दूर सर्जना का विशाल क्षितिज रचने की परम्परा है जिसमें लेखक अपनी अनुभूतियाँ, अपने मनोभाव बेझिझक, बिना किसी श्रम और संकोच के प्रकट करता है। मैं उसी स्वाभाविकता की खोज में अपने को निमग्न पाता हूँ जिसमें रचना विशिष्ट संप्रेषण की विशिष्ट स्थिति में पहुँच जाती है, भाव का तादात्म्य कर लेती है। मेरे लिये रचना का यह सत्य सूत्र सदैव ही जानने योग्य है।
इसलिए मैं अकेला होकर रचने बैठता हूँ कि अपने इस एकांत के गह्वर से अभिव्यक्ति की रोशनी की किरण समेट लाऊं कि भावना के जगत का बहुत सारा रहस्य अनावृत हो जाय। पर मैं देखता हूँ कि मेरी यथार्थगत जड़ता मेरी भावना के उत्साह और रचना-प्रक्रिया के मौन आमंत्रण के जादू को क्षण भर में तोड़ डालती है। मैं यह भी देखता हूँ कि मेरी एकान्तिक कल्पना और अनभिव्यक्ति के अन्तराल में कई चेहरे अचानक सामने आ जाते हैं, फ़िर अपने आप को नष्ट करते रहते हैं।
रचना का सत्य सूत्र खोजने की बेचैनी
मैं छटपटा-छटपटा कर अपनी रचना का सत्य-सूत्र खोजना चाहता हूँ। मैं इस सत्य को पाने के लिए बेचैन हूँ-उसी सत्य को जिसमें सब होने की सार्थकता है। जहाँ सारी बेचैनी, सारी घबराहट आकर समाप्त हो जाते है, जिसको ऋचाएं कहती हैं कि वह पूर्ण है, सम्पूर्ण है-
“सर्वं खत्विदं ब्रह्म “
मैं रचना के इसी सत्य से अपना साक्षात्कार चाहता हूँ, पर साथ ही मैं यह भी आभास करता हूँ कि मेरा यह लघु मानस इतना विराट सत्य कैसे खोज सकेगा, प्राप्त कर सकेगा? मेरे इस मानव-मन की सीमायें हैं, और उनका अतिक्रमण कभी भी सम्भव नहीं हो सकेगा। फलतः मेरा सत्य खंड-सत्य ही हो सकता है, पूर्ण सत्य नहीं।
तो यह सत्य मेरे लिए रहस्य बन कर खडा है। यह सत्य रहस्य है, इसलिए अपरिचित और अकल्पित मेरे कण-कण को ओत-प्रोत किए है। वह निकटतम और अन्यतम है।
मुझे धीरे-धीरे यह लगने लगा है कि जो अबूझ की पीड़ा और मेरी जीवन-कथा की व्यथा है, उसी में यह रहस्य बोलता है।