यह कविता तब लिखी थी जब हिन्दी कविता से तुंरत का परिचय हुआ था । स्नातक कक्षा की कविताओं को पढ़कर कवि बनने की इच्छा हुई – कविता लिख मारी।
यह कैसा संवाद सखी ?
प्रेम-विरह-कातर-मानस यह तेरी दरस सुधा का प्यासा
इसके अन्तर में गुंजित है प्रिय के दर्शन की अभिलाषा
जब भी मोह-मथित-मानस यह तुम्हें ढूंढता,तुम छिपते हो
सच बतलाना अतल प्रेम का यह कोई अनुवाद सखी ?
यह कैसा संवाद सखी ?
आज तुम्हारे द्वार गया था नेत्र तुम्हीं पर जा कर ठहरे
सौरभ का वातास खुला हम प्रेम-वारि में गहरे उतरे
मैं वार गया अपनी पलकों पर, तुम पलकों से हार गए
इन आँखों का अंतर्मन से यह कैसा हुआ विवाद सखी ?
यह कैसा संवाद सखी ?
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