यह कविता तब लिखी थी जब हिन्दी कविता से तुंरत का परिचय हुआ था । स्नातक कक्षा की कविताओं को पढ़कर कवि बनने की इच्छा हुई – कविता लिख मारी।
यह कैसा संवाद सखी ?
प्रेम-विरह-कातर-मानस यह तेरी दरस सुधा का प्यासा
इसके अन्तर में गुंजित है प्रिय के दर्शन की अभिलाषा
जब भी मोह-मथित-मानस यह तुम्हें ढूंढता,तुम छिपते हो
सच बतलाना अतल प्रेम का यह कोई अनुवाद सखी ?
यह कैसा संवाद सखी ?
आज तुम्हारे द्वार गया था नेत्र तुम्हीं पर जा कर ठहरे
सौरभ का वातास खुला हम प्रेम-वारि में गहरे उतरे
मैं वार गया अपनी पलकों पर, तुम पलकों से हार गए
इन आँखों का अंतर्मन से यह कैसा हुआ विवाद सखी ?
यह कैसा संवाद सखी ?
आज तुम्हारे द्वार गया था नेत्र तुम्हीं पर जा कर ठहरे
सौरभ का वातास खुला हम प्रेम-वारि में गहरे उतरे
bahut hi khubsurat
उस स,अय लिखी कविता लगती तो नहीं..बहुत उम्दा है..अति उत्तम!!
समीर जी, दिल न तोडिये. ख़ुद के लिए सफाई दूँ – अच्छा नहीं लगता . अपने ग्रेजुएसन के समय ऐसी कवितायें लिखीं थीं. दोस्तों ने भी मजाक उडा कर ‘कल का कवि’ कह दिया था. इसकी प्रतिकिया में एकदम नया कवि बन कर ‘दुर्घटना’ नाम से एक कविता लिखी थी . इसे आप http://www.anubhuti-hindi.org/kavi/h/himanshukumarpandey/durghatna.htm पर पढ़ लें . अब तो कह दीजिये – इसे मैंने लिखा है.
एक बात और . अपनी उन दिनों की सारी कवितायें लिख कर ही मानूंगा. शायद आप भी मन जायेंगे की मैंने लिखा .
भैया ! हमें तो किसी प्रमाण की जरूरत ही नहीं !
काश ! उस समय मैं आपके इर्द-गिर्द होता तो 'दुर्घटना' न होती !