आपने पढ़ी होगी। अगर नहीं पढ़ी, तो यह रही अरविन्द जी की चिट्ठाकार चर्चा, इस चर्चा के एक कूट शब्द को अनावृत करती रचना जी की यह टिप्पणी और इस टिप्पणी पर थोड़ी और खुलती यह चिट्ठा चर्चा। नहीं मालूम, अरविन्द जी कुछ निस्पृह-से क्यों हो गये हैं,पर जो मुझे महसूस हो रहा है कि वो कहना चाहते हैं, उसे ग़ालिब की जुबान में लिख रहा हूँ:
दिल को हम हर्फ–ए–वफा समझे थे, क्या मालूम था
यानी, यह पहले ही नज्र–ए–इम्तिहाँ हो जायेगा।
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हर्फ–ए–वफा़ – प्रेम-निर्वाह में काम आने वाला
नज्र–ए–इम्तिहाँ – परीक्षक की भेंट
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