पिछली प्रविष्टि का शेष .
“Sow the wind and reap the whirlwind” की प्रवृत्ति ने भी टिप्पणीकारी का चरित्र बहुत अधिक प्रभावित किया है । यह अनुभव भी बहुत कुछ प्रेरित करता रहा टिप्पणीकारी पर लिखने के लिये । मन अनेकों बार कसमसाता रहा यह देखकर कि जो ब्लॉग-प्रविष्टियाँ वास्तव में उल्लेखनीय़ थीं, उन्हें टिप्पणियाँ नहीं मिलीं (मिलीं भी तो खानापूर्ति करतीं) और जो ब्लॉग-प्रविष्टियाँ आडम्बरी और कम महत्वपूर्ण थीं वे अनेकों टिप्पणियों से समादृत हुईं। ब्लॉग-माध्यम ने टिप्पणीकारी का यह जो यंत्र हमें पकड़ा दिया है, क्या उसका दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं हम? कितना टिप्पणियाँ मिलती हैं ’रचनाकार’ को, ’हिन्द-युग्म’ को, ’हिन्दी भारत’ को या ऐसे ही अन्य उल्लेखनीय़ चिट्ठों को? यद्यपि यह चिट्ठे अपनी मूल्यवत्ता और सौन्दर्य के लिये प्रतिष्ठित हैं, और “फूल के सौन्दर्य को फल की आकांक्षा से युक्त करके देखना सौन्दर्यबोध का निकृष्टतम पक्ष है।’ क्या करूँ –
” सब्र करना सख़्त मुश्किल है, तड़पना सहल है
अपने बस का काम कर लेता हूँ आसाँ देखकर ।”
कुछ चिट्ठों का नाम ले रहा हूँ तो कहना जरूरी है कि ’मोहल्ला’ व भड़ास’, अथवा ’कबाड़खाना’ एवं ’नारी’ आदि सामूहिक मंचों ने प्रविष्टियों का वैविध्य प्रस्तुत किया, अपनी कुछ आत्यन्तिक प्रभाव वाली प्रविष्टियों से ब्लॉग जगत को नये तेवर दिये और इन प्रविष्टियों पर टिप्पणियाँ भी मिलीं, परन्तु टिप्पणीकारी को प्रोत्साहित करने में ये उदासीन रहे। मेरी दृष्टि में ’हिन्द-युग्म’ ही एक ऐसा मंच दिखायी पड़ा जो टिप्पणीकारी के लिये बकायदा पुरस्कृत करता हो। ऐसे सामूहिक मंचों के पुरस्कर्ताओं में कुछ-एक को छोड़ दें तो सभी लोग नियमित टिप्पणीकारी से उदासीन रहा करते हैं।
अन्य चिट्ठाकारों द्वारा टिप्पणियों की दशा-दिशा देखनी हो तो ज्ञान जी का यह और यह आलेख, जितू जी का यह आलेख, और अनूप शुक्ल जी का यह आलेख पढ़ लें, मैं क्या लिखूँ?
अब अगर आप कुछ प्यारी-सी टिप्पणियाँ दें तो यह आलेख आगे बढ़ाऊँ।