(Photo credit: soul-nectar) |
मैं रोज सबेरे जगता हूँ
दिन के उजाले की आहट
और तुम्हारी मुस्कराहट
साफ़ महसूस करता हूँ।
चाय की प्याली से उठती
स्नेह की भाप चेहरे पर छा जाती है।
फ़िर नहाकर देंह ही नहीं
मन भी साफ़ करता हूँ,
फ़िर बुदबुदाते होठों से सत्वर
प्रभु-प्रार्थना के मंद-स्वर
कानों से ही नहीं, हृदय से सुनता हूँ।
अगरबत्ती की नोंक से उठता
अखिल शान्ति का धुआँ मन पर छा जाता है।
फ़िर दिन की चटकीली धूप में
राह ही नहीं, चाह भी निरखता हूँ,
देख कर भी जीवन की अथ-इति दुविधा
समझ कर भी तृष्णा की खेचर-गति विविधा
मैं औरों से नहीं, खुद से ठगा जाता हूँ।
तब कसकीली टीस से उपजी
वीतरागी निःश्वास जीवन पर छा जाती है।
फ़िर गहराती शाम में
उजास ही नहीं, थकान भी खो जाती है,
तब दिन की सब यंत्र-क्रिया
लगती क्षण-क्षण मिथ्या
सब कुछ काल-चक्र-अधीन महसूसता हूँ।
तत्क्षण ही अपने सम्मोहक-लोक से उठकर
सपनों से पगी नींद आँखों में छा जाती है।
मैं रोज सबेरे जगता हूँ
और रात को सो जाता हूँ,
पता नहीं कैसे इसी दिनचर्या से
निकाल कर कुछ वक्त
इसी दिनचर्या को निरखने के लिये,
अलग होकर अपने आप से
देखता हूँ अपने आप को।
महसूस करता हूँ,
सब तो कविता है।