करुणावतार बुद्ध- 1, 2, 3, 4, 5 ,6 के बाद प्रस्तुत है सातवीं कड़ी-
पंचम दृश्य
सिद्धार्थ: सारी रात अज्ञात पथ पर भटकता रहा। सोच रहा था पर्याप्त दूरी को मेरे चरण नाप चुके होंगे, किन्तु दिनमणि की किरणों में साफ दिख रहा है कि अभीं तो वही बीहड़ वन-वीथि है। अभी वही तरु-संकुल वनप्रांतर है जहाँ अनजाने कहाँ खोया, सोया द्वंद्वाक्रांत मन शाश्वत सुख की तलाश में तड़प रहा है। लगता है मैं स्वयं से ही मात खा गया हूँ अब और अपनी ही धमनियों के उबलते रक्त से स्नान कर रहा हूँ।
(कुछ ही दूरी पर एक तरु-तृणाच्छादित पर्ण कुटीर से छनकर कुछ स्वर सुनायी पड़ रहे हैं। कुछ वैदिक कर्मकाण्डरत द्विज शास्त्र-चर्चा में रत हैं। यज्ञ के धुँएं का आवर्त दृश्य हो रहा है। सिद्धार्थ स्वतः ही उधर पग बढ़ा देते हैं। इन्हें याज्ञिक ब्राह्मणों का दल घेर लेता है।)
ब्राह्मण: अरे ओ तरुण तपस्वी, आ जा हमारे साथ! किस कुटुम्ब की भरी-पूरी कोख में शून्यता भरी है तुमने। तुम तो अदभुत पुरुष लग रहे हो। घुँघुराली भ्रमरवत अलकें चन्द्र-भाल को चूम रही हैं। कर्णांतदीर्घ लोचन हैं। आजानुबाहु, विशाल वक्ष और वृषभ-स्कंध तुम्हारे महापुरुष होने की कहानी कह रहे हैं। देख रहा हूँ तुम्हारे उत्तम ज्योतिषीय लक्षण। अपना परिचय दो! ओ अनाहूत अभ्यागत! हमारी उत्सुकता शान्त करो।
सिद्धार्थ: वन्दनीय देव! मेरा परिचय आप इतना ही समझ लें कि मैं मनोरथों के निर्गंध पुष्प एकत्र करने वाला व्यथित प्राण युवा पुरुष हूँ। कभी कहीं का राजा बनने वाला मैं, जब विश्व पीड़ा पुकारने चली आयी, तो उसका त्राण करने दौड़ पड़ा। पुर, परिजन छोड़ते नहीं थे। उनकी अनगढ़ अर्गला तोड़ कर निर्जन निशा में खुले आकाश के नीचे निकल आया हूँ। मैं चिर सुख का अमृत-कलश खींच लाने के लिये निकला हूँ, दिशा-दिशा में उड़ जाना चाहता हूँ इस निमित्त। आकुल हैं प्राण धरती को जरा, व्याधि, विपन्नता, मरण से मुक्त करने के लिये।
ब्राह्मण: हे राजकुमार! कर्म प्रशंसनीय़ वही हो सकता है जो किसी प्रशंसनीय़ उद्देश्य का साधक हो। तुम्हारी थकी हुई वाणी बता रही है कि तुम्हारे बार-बार द्वार थपकाने पर भी तुम जो ढूँढ़ रहे थे, वह मिला नहीं। फैली हुई तेरी अँजुरी में दिव्य-वरदान का सुमन खिला नहीं। क्या द्वार सभी जानते हो? मरुभूमि में पानी की खोज में इधर-उधर दौड़ना बुद्धिमानी का काम नहीं। जगत के स्वरूप को पहचानने का यत्न करो। जब वह झूठा प्रमाणित हो जाय तो अपनी कार्यशैली को तदनुरुप बनाने का प्रयास करो। प्रकृति के चिरन्तन, शाश्वत नियमों से सब आबद्ध हैं। काल-चक्र की गति से कौन बचा है?
सिद्धार्थ: विप्रवर! यदि मेरी वीणा भग्नतंतु है, तो क्यों? क्यों मस्तक झुका हुआ है, चरण विजड़ित हैं? मेरा जहाँ कोई नहीं है वहाँ से क्यों लगता है कोई मुझे पुकार रहा है? मुझे बताओ! मैं अगणित जन्मों में कहाँ-कहाँ जन्मा हूँ, किन-किन लोकों की यात्रा की है, किन-किन सुख-दुखों से दो चार हुआ हूँ! कैसे समाप्त होगी यह विश्व-वेदना? कौन करेगा?
भविष्य की ओर से निश्चिन्त हो जाना ही वर्तमान को आनंदमय बनाना है। हमें देखो! हमारी इस निश्चिन्तता और अलमस्ती की तह में प्रभु पर अखंड निर्भरता है। उसकी वात्सल्यमयी गोद में अपने को डाल देना है। उसके विशाल वक्षस्थल में अपने को छुपाकर, सब ओर से आँखें मूँदकर, माँ की छाती का दूध पीना है, और लोक-परलोक सब भूल जाना है। जननी से एकाकार हो जाना है। यहाँ जगत या जगत व्यथा को स्मरण करने का कैसा यत्न! माँ के स्तन से मुँह लगाया कि संसार मिटा, फिर भविष्य की निगोड़ी चिन्ता और लोक-परलोक का अस्तित्व ही कहाँ रहा? तुम तो सदा-सदैव उसकी शीतल गोद में सुरक्षित हो। वह तुम्हें अपनी छाती में छिपाये हुए चुम्बनों की वर्षा से तुम्हारे रोम-रोम को नहला रही है। भविष्य के गर्भ में क्या है, भावी क्या है, इसकी चिन्ता करने वाले हम कौन?
सिद्धार्थ: हर दिन की पुनरावृत्ति एक हानि जैसी लग रही है, जैसे उसने कुछ मेरा छीन लिया। आज फिर आकर वह कल की कहानी में जुड़ गया। हे विप्रवर! सामने क्षणिक सुख की मृगमरीचिका दिखाकर दुख के आवर्त में डुबो देने वाले दिन को जी करता है हाथ बढ़ाकर पकड़ लूँ, और उसकी छाती चीरकर समयातीत आनंद की अक्षय थाती हथिया लूँ। यह देखिये सामने, कितने स्वाधीनभाव से फुदक रहा है यह शुक! उसे भय नहीं है। इतने पास आकर वह चारा चुग रहा है। यह स्वाधीनता उसकी निजी सम्पत्ति है। इसने यह मुक्तता, यह अभय कहाँ से पाया? जिधर फुदक-फुदक कर जाना चाह रहा है, उधर जा रहा है। क्या यह सच बखान रहा है कि समय को मत कोसो। समय सुन्दर है।
ब्राह्मण: तुम्हारा वह परम आराध्य कौन है जिसके हित यह योगी वाला फेरा है। तुम्हारी वह वेदना क्या है जो तुम्हारी वाणी में गूँज रही है? तुम्हारी स्मृति में वह कौन है जो तुम्हारे संकल्पों को मथ रहा है? प्रेम से भी मधुर तुम्हारी कौन-सी निधि है? बताओ तो सही वासना से विसु्ध और विछोह से गीली अपनी उपलब्धि-तृषा को!
सिद्धार्थ: विप्र! मैं उस निरपेक्ष तत्व को कौन-सी भाषा दूँ जिसकी मुझे खोज है। वह हमारी परिभाषा में नहीं बँध सकता। सीमा से असंपृक्त उस महाकाश की टोह लेना चाहता हूँ, जिसमें दिशायें जन्म लेती हैं और काल बहता है। जिसमें सृजन, प्रलय, बन्धन, अंधकार, पाप, पुण्यादि सब तिरोहित हो जाते हैं। मुझे दुःखान्तक खेल का अंत और सुःखान्तक खेल का प्रकाश करने वाले सर्व-सर्वत्र के जागरण की ललक है, तृषा है, व्यथा है। क्या मुझे उस लोक का दर्शन करा देंगे! मैं तो आगत विगत अनागत के उस उत्स को आक्रान्त कर देना चाहता हूँ जिससे दुःखान्त लीला की कल्लोलिनी प्रवहमान है।