इस ब्लॉग पर करुणावतार बुद्ध नामक नाट्य-प्रविष्टियाँ मेरे प्रिय और प्रेरक चरित्रों के जीवन-कर्म आदि को आधार बनाकर लघु नाटिकाएँ प्रस्तुत करने का प्रारंभिक प्रयास थीं। यद्यपि अभी भी अवसर बना तो बुद्ध के जीवन की अन्यान्य घटनाओं को समेटते हुए कुछ और प्रविष्टियाँ प्रस्तुत करने की इच्छा है। बुद्ध के साथ ही अन्य चरित्रों का सहज आकर्षण इन पर लिखी जाने वाली प्रविष्टियों का हेतु बना और इन व्यक्तित्वों का चरित्र-उद्घाटन करतीं अनेकानेन नाट्य-प्रविष्टियाँ लिख दी गयीं। नाट्य-प्रस्तुतियों के इसी क्रम में अब प्रस्तुत है अनुकरणीय चरित्र राजा हरिश्चन्द्र पर लिखी प्रविष्टियाँ। सिमटती हुई श्रद्धा, पद-मर्दित विश्वास एवं क्षीण होते सत्याचरण वाले इस समाज के लिए सत्य हरिश्चन्द्र का चरित्र-अवगाहन प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी। ऐसे चरित्र दिग्भ्रमित मानवता के उत्थान का साक्षी बनकर, शाश्वत मूल्यों की थाती लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और पुकार उठते हैं- असतो मां सद्गमय।
राजा हरिश्चन्द्र: नाटक
प्रथम दृश्य
(देवेन्द्र का दरबार। पारिजात पुष्पों से सुसज्जित सिंहासन। देवगण पुष्प बरसा रहे हैं, परिकर यशोगान कर रहे हैं, अप्सरायें नृत्य कर रहीं हैं। सहसा द्वारपाल प्रवेश करता है।)
द्वारपाल: राजाधिराज! देवर्षि नारद प्रवेश कर रहे हैं।
इन्द्र: सादर लाओ, मैं ऋषिवर का दर्शन कर लोचन कृतार्थ करूँ।
द्वारपाल: यथाज्ञापयतु !
(दिव्य शरीर नारद का प्रवेश। करतल वीणा पर नारायण-नारायण का मधुर स्वर झंकृत है।)
इन्द्र:(हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए सिंहासन से उठ खड़े होते हैं) आइये देवर्षि! मेरा परम सौभाग्य है कि आपके पद-पद्म अमरावती में पधारे। आसन ग्रहण करें देवर्षि!
नारद: देवाधिपति! परिभ्रमण तो अपना स्वभाव ही है, परिक्रमा अपनी दिनचर्या है, चरैवेति-चरैवेति जीवन-मंत्र है। स्थिरता तो मरण में है, जीवन में कहाँ! चलना ही केवल चलना है, जीवन चलता ही रहता है।
इन्द्र: आप कृपालु हैं। मैं कृतकृत्य हुआ। कहाँ से आना हो रहा है? उत्सुक हूँ कि श्रीमुख से कुछ सुनूँ।
नारद: अभी तो धराधाम से चला हूँ। ब्रह्मलोक जाने का मन था, सुरपुर की संगीतमय लहरी सुन ठिठक गया। ऐसा ही रुचिर ऋतुराज लेकर काम हिमगिरि पर मुझे स्खलित करने गया था। हरि इच्छा। वही स्मृति हुई। आपसे मिलने आ गया। हूँ तो मैं स्वर्ग लोक में पर मन बँधा है मृतलोक में ही। इन्द्र! मानव भी कितना गरिमामय है।
इन्द्र: हे मनोजमदमर्दन ऋषि! मृत्युलोक के किस महामानव ने आपको अभिभूत किया है?
नारद: अयोध्या नरेश हरिश्चन्द्र। त्रिशंकु सुत हरिश्चन्द्र की यशोगाथा दशोदिगंत में गूँज रही है। सत्य की तो वह प्रतिमूर्ति ही है। पवन का प्रत्येक झोंका जैसे यही प्रतिध्वनित कर रहा था-
चन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार । पै दृढ़वत हरिश्चन्द्र को टरै न सत्य विचार॥
ऐसा महापुरुष ही दैदीप्यमान भारत की अनुपम तेजस्विता है। सत्य तो उस राजा के लिए प्रभु का चरणामृत है। झोपड़ी से लेकर राजप्रासाद तक वह मुक्तहस्त वितरित हो रहा है। धन्य है ऐसा भूपाल।
इन्द्र: (हृदय ईर्ष्या से उद्वेलित हो रहा है) (स्वगत) हृदय भी ईश्वर ने क्या वस्तु बनाई है। जो जितना ही बड़ा, उसकी ईर्ष्या उतनी ही बड़ी। (प्रकट) ऋषिवर! जिसकी प्रशंसा आप जैसा निस्पृह व्यक्ति करे, वह बड़ा तो होगा ही। चरित्र उद्घाटित करें ऋषिवर!
नारद: कहीं खो गए हैं आप! हरिश्चन्द्र तो सत्यवादिता का सामगान है। उसका मन,वचन, कर्म एक है। जो कहता है वही करता है । सर्वोत्तम उपलब्धि तो यह है देवराज कि पृथ्वी हरिश्चन्द्र के राज्य में कामदुग्धा हो गयी है। प्रजा का सुख ही राजा का सुख है। सर्वत्र सुख है, शांति है, सौहार्द्र है, मोद है, मंगल है। सत्यवादी हरिश्चन्द्र का होना मानवता की महत्तम शोभा है।
इन्द्र:(स्वगत) अब तो पाषाण हृदय पर रखकर बड़ाई सुन रहा हूँ। राजा को इन्द्र पद का लोभ उठना स्वाभाविक है, मैं इसे कैसे सहन कर सकूँगा। (प्रकट) ऐसा व्यक्ति तो सहज ही स्वर्गारोहण कर जाता है न ऋषिवर!
नारद: जो सत्य की सम्पदा को अपने हृदय का हार बनाये हो उसके लिए तुच्छ स्वर्ग की क्या कीमत? पद प्रतिष्ठा तो सत्य निष्ठा के चरण तले स्वयमेव लोटती रहती है। चरित्र ही महापुरुषों का स्वर्ग है।
इन्द्र: हरिश्चन्द्र का कुटुम्ब भी हरिश्चन्द्र ही है क्या देवर्षि?
नारद: सुरवर! रानी शव्या और सुकुमार रोहिताश्व की बात निराली ही है। जगत विकारों की अन्धतिमिर गली में वे सद्गु्णों की निष्कंप दीपशिखा हैं। उन्हें ही नहीं, अयोध्या की सारी प्रजा को हमने श्रुति नीति में पारंगत देखा। न कहीं द्वेष, न क्षोभ, न ईर्ष्या, न उन्माद। सम्पूर्ण प्रजा ही हरिश्चन्द्र का कुटुम्ब है। सभी सत्य, धर्म, शील के आगार। दातावृत्ति तो उनके रुधिर में है।
इन्द्र: ऋषिवर! क्या दान देते-देते लक्ष्मी क्षीण नहीं हो जायेंगी?
नारद: दाता मन हो तो भर्ता विश्वंभर है। शतगुणा लेकर सहस्रगुणा नीरदाता मेघ क्या फिर-फिर भर-भर नहीं जाते हैं। सागर की वाष्पीभूत जलराशि धारासार वृष्टि से धरित्री की छाती शीतल कर देती है न! क्या चन्द्र बिम्ब के चुम्बन की कसक समेटे सागर कभी रीता हुआ है? धर्मशील के पास सुख-संपत्ति बुलाये बिना ही चली जाती है।
इन्द्र: (स्वगत) मेरा तो कलेजा ही बैठा जा रहा है। चाहे जैसे भी हो हरिश्चन्द्र का पतन करना ही होगा। (प्रकट) हे मुनिश्रेष्ठ! मानव इतना गुणवान होगा, हमको तो इसका पता न था। आप प्रशंसा कर रहे हैं तो सत्य ही…….
एक प्रेरक कथा है, मूल्यों की। बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है आपने।
बहुत ही अच्छी प्रसतुति।
कल 18/04/2012 को आपके इस ब्लॉग को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
… सपना अपने घर का …
धन्यवाद!
कमाल! मुग्ध हूँ हिमांशु जी!
प्रतीक्षित रहूँगा।
आपकी उपस्थिति हमेशा ही मुदित करती है! आभार।
🙂
बहुत सुन्दर!
बहुत ही सुन्दर…..सुखद.. इन्हें पढ़ना……