सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र जैसे चरित्र दिग्भ्रमित मानवता के उत्थान का साक्षी बनकर, शाश्वत मूल्यों की थाती लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और पुकार उठते हैं- असतो मां सद्गमय। प्रस्तुत है अनुकरणीय चरित्र राजा हरिश्चन्द्र पर लिखी प्रविष्टियाँ। पिछली प्रविष्टियों राजा हरिश्चन्द्र- एक, दो, तीन और चार से आगे।
राजा हरिश्चन्द्र: चतुर्थ दृश्य
(काशी क्षेत्र का प्रवेश स्थल)
राजा: देवि! लो आ गयी वाराणसी नगरी। ’येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः’। देख रही हो व्रतशीले! बेटे रोहिताश्व, देख रहे हो न कल-कल छल-छल बहती भगवती भागरथी की निर्मल धवल धारा!
(रोहिताश्व प्रसन्न होकर गंगा जल स्पर्श करता है। रानी सावधानी से उसकी बाँह पकड़े है।)
गंगा पुष्प माला की तरह काशी पुरी के अधिपति विश्वनाथ के गले में झूल गयी है। सादर प्रणाम करो!
रानी: महाराज! सुना है भूप भागीरथ ने अपने तपोबल से गंगा का यहाँ अवतरण कराया। जब से यह धराधाम पर प्रवाहित है तबसे इसमें स्नान करके न जाने कितने काक पिक हो गए और कितने वक मराल हो गए। हे सुरसरि! हमें सत्पथ पर चलते रहने का बल दो। ’जेते तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं’। तुम्हारा नाम लेने से यमत्रास मिट जाती है। तुम्हारे जल का दर्शन करने से सारे ताप शमन हो जाते हैं। हम अकिंचन आज आप से सत्य-निर्वहन की भीख माँगते हैं। क्षत्रिय राजा और क्षत्राणी रानी की झोली भर दो माँ! ’भागीरथी हम दोष भरे पै भरोस यही कि परोस तिहारे’। (सिर झुकाकर प्रणाम करती है।)
राजा: देवि! यह सरिता नहीं, प्राणशक्ति है। गंगा बिन्दु बिन्दु में गोविन्द दरसतु है। किनारे ऋषियों के आश्रम हैं, घाट हैं, तरुमालाएँ हैं, इनका सुख कम नहीं है। पुष्प गंध से महमह करती फुलवारियों का मूर्ख माली ही एक पंखुड़ी के टूटने पर पश्चाताप करता है। कालचक्र का सम्मान करो। कुसुम से कुलिश बनने की कला कायाकल्प किए बिना रीता नहीं छोड़ेगी। अब हम पुरी के गर्भ गृह में प्रवेश करें, इसके पहले कोतवाल भैरव को नमन करें।
सभी : काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे।
(सिर नवाकर प्रणाम करते हैं। सभी थके पाँव मन्द गति से काशी की गली में प्रवेश करते हैं।)
राजा: देखो देवि! क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि यहाँ अद्भुत सत्य का आचमन हो रहा है। नटराज महाकाल की गोदी में मुक्ति बालिका ठुनक रही है । विश्वातीत ब्रह्म यहाँ की रज रज में लोट-पोट रहा है। यह भूमि तो दैदीप्यमान मातृत्व की अनुपम तेजस्विता ही है।
रानी: हाँ आर्यपुत्र! निःसन्देह यहाँ शान्ति का चिन्मय साम्राज्य है। पर न जाने क्यों मेरा मन एक अज्ञात अंधकूप के अंतराल में उतर रहा है। मेरे जीवन के पल को कोई अज्ञात अपनी धूपदान में डाल कर जला रहा है। क्लेशकर्षिता मैं क्या करूँ?
राजा: देवि! अन्तर की आहों का ज्वालामुखी फूटे उसके पहले ही हमें बन्धन तोड़कर सत्यमेव जयते की दुन्दुभि बजा देनी है। यह तुम्हारी साधना की सुहागरात है। दुख का मोल सुख से अधिक है। शांति तन से नहीं मन से मिलती है। सत्य निष्ठा के तैजस परमाणुओं में प्राणों का होम ही द्वंद्वातीत शांति है। तुम तो विवेकशीला हो। क्या गण्डकी की वेगवती लहरों में थपेड़े खाता, रगड़ाता पाषाण खंड शालिग्राम-शिला नहीं बन जाता?
रानी: आर्यपुत्र की जय हो! होनहार क्या है, कौन जान पाए?
राजा: (गली में घूमते हुए) अरे, सुनो काशीवासी लक्ष्मीपात्रों, सेठ साहूकारों, पुण्यात्मा धनी मानी महापुरुषों! किसी कारणवश पैसों की नितान्त आवश्यकता है। सपत्नीक एक दास अपने को बेच रहा है। कोई कृपा करके खरीद लेता। एक हजार मुद्राओं की आवश्यकता है। अरे सुनो भाई!
(कहते हुए इधर उधर भटक रहे हैं। रानी और रोहिताश्व लोगों की ओर तो कभी राजा के मुख की ओर निहार निहार कर रो रहे हैं। राजा स्वतः विचारों में डूबे हैं। सोच की मुद्रा है।)
कभी नर विक्रय को अन्याय मानने वाला मैं स्वयं ही यह कर्म कर रहा हूँ। हाय रे दैवगति। धरती फट जाती तो समा जाता। किन्तु ब्राह्मण की दक्षिणा दिए बिना….। (फिर गुहार लगाते हुए)….अरे, कोई दाता है जो हमें खरीद लेता! भाईयों कृपा करो।
(रोहिताश्व माँ का आँचल पकड़े सिसक रहा है। रानी पलकें पोंछ रही है। एक अग्निहोत्री ब्राह्मण अपने शिष्य के साथ सामने आता है।)
ब्राह्मण: देखो, यह कुलीन घर का बालक और किसी राजगृह की रमणी है। यह पुरुष भी दिव्यवपु लग रहा है। बात क्या है? क्या इसका पुण्यकाल समाप्त हो गया?
(सामने जा कर खड़े हो जाते हैं। राजा प्रणाम करता है।)
शिष्य: मेरे गुरुदेव! आपको गृहकार्य के लिए एक दास या दासी चाहिए। सम्पूर्ण दिवस यज्ञादि तथा शास्त्र-शिक्षण, शिष्योपदेश में ही बीत जाआ है। अतः गुरुपत्नी की संभाल एवं विप्रकुलोचित सुश्रुषा के लिए सेवक खरीदा जा सकता है।
ब्राह्मण: तुम यह कार्य कर क्या रहे हो और यह बताओ क्या कर सकते हो? कैसे रहोगे? क्या है तुम्हारा मोल?
राजा: क्यों कर रहा हूँ, नहीं बता सकता। हाँ इतना जान लें कि ब्राह्मण की दक्षिणा चुकानी है। कर क्या सकता हूँ, मैं क्या जानूँ! जो भी स्वामी का आदेश होगा, करूँगा। जहाँ भी, जैसे भी, जिस हालत में रखेंगे, रहूँगा। सब सहर्ष स्वीकार है। किसी भाँति द्विज ऋण तो मिटे।
ब्राह्मण: जल भरने, आसन, वस्त्र, कमरे साफ करने, बाहर झाड़ू लगाने, पुष्प चयन करने तथा अन्य वाह्य क्रिया-कलापों में सामान आदि लाने ले जाने का कार्य करना होगा। स्वीकार है?
राजा: हाँ श्रीमान! सब स्वीकार है।
ब्राह्मण: तुम्हारा दुर्दिन देखकर तुम्हें खरीद ले रहा हूँ, लेकिन ब्राह्मण का क्रोध उसकी नियम-निष्ठा को याद रखना। रंच भर भी क्षमा नहीं, और हाँ मैं पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ दूँगा। इससे अधिक नहीं। ये लो मुद्राएँ। जल्दी चलो। मेरे हवन का समय हो रहा है। अधिक उधेड़ बुन करनी हो तो जा आगे बढ़। हम चले।
(रानी दौड़कर पैर पकड़ती है।)
रानी: नहीं धरती के देवता! ऐसा न करें। मेरे प्राणनाथ संकट में हैं। मैं उनकी अर्द्धांगिनी किस काम आऊँगी। मुझे खरीद लें, मैं सब काम करूँगी। पर-पुरुष संभाषण एवं उच्छिष्ट भोजन छोड़कर आप जो कहेंगे, मैं सब करूँगी। मैं और मेरा नन्हा रोहित आपकी सेवा में वैसे ही लगे रहेंगे, जैसे काया के पीछे छाया ही लगी रहती है। (हाथ फैलाकर भीख माँगती हुई) हे परोपकारी देवता! आप हमें खरीद लें। मैं अपने आर्यपुत्र का म्लान मुख नहीं देख पा रही हूँ। देवता कृपा करें! (बिलखती है।)
रोहिताश्व:(माँ की भाषा में) हमको खरीद लें बाबा, बड़ी कृपा होगी।
ब्राह्मण: ठीक है। नर या नारी कोई भी हो, मेरा कार्य हो जाएगा। यह स्त्री मेरे बर्तन वस्त्र आदि धो लेगी, गृह मार्जनी कर लेगी और यह लड़का पूजा के पात्र धोएगा, फूल तोड़ ले आएगा, यज्ञ की लकड़ियाँ एवं उपले बटोरेगा। लो पति परायणे, ले लो स्वर्ण मुद्राएँ।
(रानी के हाथ पर रखता है। रानी वह सोना राजा के दुपट्टे में बाँध देती हैं। रोहित माँ का आँचल पकड़ कभी इनका, कभी उनका मुख देख रहा है।)
राजा:(उद्विग्न होकर) हाय रे विधाता! पहले जिसे राजरानी बनाकर रखा, आज उसी को नौकरानी बना रहा हूँ। क्या यह दिन भी देखना बाकी था! राजपुत्र को चाकरी करनी होगी। मैं क्यों जन्मा ही धरती पर। सत्य तुम्हारी जय हो, तुम्हारी जय हो।
रानी: आर्यपुत्र! आज्ञा दें कि मैं क्षण भर के लिए जी भरकर आपको देख लूँ, फिर तो इस मुख का दर्शन दुर्लभ हो जाएगा। कहाँ आप कहाँ मैं।
(पाँव छुकर बार-बार क्षमा याचना करती हैं। राजा उनका सिर सहला रहे हैं। आँखों में आँसू उमड़ आए हैं।)
ब्राह्मण: बन्द करो यह सब चरित्र। मैं चल रहा हूँ। शिष्य है, उसके साथ आ जाओ।
(ब्राह्मण जाता है। शिष्य बार बार चलने को कह रहा है, रोहित की बाँह पकड़ कर खींच रहा है। वह माँ से लिपट-लिपट जाता है।)
रानी: अब आज्ञा दें महाराज! अपनी कमलिनी को सूर्य दूर क्षितिज में रहकर भी तो जिलाए रखते हैं। (ऊपर की ओर दृष्टि करके, हाथ जोड़कर) ओ ब्रह्माण्ड को ज्योतित करने वाले ज्योतिपुंजों, ओ अनंत के धाराधर, ओ व्योम, ओ सोम, ओ सूर्य! मेरे आर्यपुत्र की सत्य की धरती के लिए अमृत दो! ओ देवगुरु, ओ वृहस्पति, ओ अमृत कवि, ओ भार्गव, ओ पावक, ओ मरुत! मेरे आर्यपुत्र की सत्य की धरती के लिए अमृत दो! ओ मरीचि लोकोद्गमों, ओ सप्तर्षि मण्डलों, ओ ऋक्, ओ साम, ओ यजुः! मेरे आर्यपुत्र की सत्य की धरती के लिए अमृत दो! ओ शिव, ओ महाकाल! आप अपने इन धर्मध्वजवाहक धरणीपति को सत्य की रक्षा के लिए अमृत दो, संजीवनी दो!
(इसी बीच पैर पटकते हुए क्रोध से आँखें लाल किए विश्वामित्र का प्रवेश।)
राजा रवि वर्मा के चित्रों से आपके शब्द जीवन्त हो उठे..
अद्भुत वर्णन!
राजा रवि वर्मा की पेंटिगस् भी देखी। लाज़वाब हैं। आपका चित्र चयन भी प्रशंसनीय।
सत्य तुम्हारी जय हो! सत्यव्रती तुम्हारी भी!
ओह!