शैलबाला शतक नयनों के नीर से लिखी हुई पाती है। इसकी भाव भूमिका अनमिल है, अनगढ़ है, अप्रत्याशित है।करुणामयी जगत जननी के चरणों में प्रणत निवेदन हैं शैलबाला शतक के यह छन्द! शैलबाला-शतक के प्रारंभिक चौबीस छंद कवित्त शैली में हैं। इन चौबीस कवित्तों में प्रारम्भिक आठ कवित्त (शैलबाला शतक: एक एवं शैलबाला शतक: दो) काली के रौद्र रूप का साक्षात दृश्य उपस्थित करते हैं। पिछली छः प्रविष्टियों (शैलबाला शतक: एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः) में इन चौबीस कवित्त छन्दों को प्रस्तुत किया जा चुका है। इसके बाद की प्रविष्टियाँ सवैया छंद में रची गयी हैं, जिनमें प्रारम्भिक बारह आज प्रस्तुत हैं।
अगली प्रविष्टियों में शेष सवैया छन्दों को बारह-बारह के समूह में प्रस्तुत कर कुल १०८ छन्दों की यह रचना सम्पूर्ण होगी। इन सभी प्रविष्टियों के साथ बाबूजी के स्वर में इनका पाठ भी संयुक्त है।
हे हिमशैल सुता सुत पै ममता में करा मत माँ कोतहाई
केकर ताकीं दुआरी मतारी बिना के हमारी हरी अधमाई
भोला के भौन की माँ भनडारिनि काहें मोरि विपदा बिसराई
पंकिल की जनि छाड़ कलाई दयामयि माई दोहाई दोहाई॥२५॥
माई बतावा बिना पद पंकज पवले कि प्रान अली सुख मानी
नाहीं सुहाई तनय दुधमूँह के शेष सुरेसहुँ की रजधानी
हे जगदम्ब कहाँ ले चढ़ाईं न चाउर चूँग न सोना न चानी
रोज भरा मोरि पंकिल आँखिन आपन पाँव पखारै के पानी॥२६॥
पूत लुटात तू सोवति मात विकार की घोर घिरी अँधियारी
मोको जगाइ करेजे लगावहु काकी नहीं बिगरी तूँ सुधारी
भोला-सो लायक बाप सुन्यो नहिं गौरी-सी लायक नाहिं मतारी॥२७॥
सीचौं न औढरदानि परानि बिलोचन पानी सों प्रेम को पौधा
पाप पयोनिधि पैरत थाक्यों पगे न जुरी पनहीं चमरौधा
पंकिल आस पियासन धाइ पर्यौ लटुआइ रह्यौ चकचौंधा
माई दुआरे परी अरजी कलपद्रुम होइहैं कबौं कुकुरौंधा॥२८॥
सोचौं निरीह महाधूसर ऊ दिनवॉं जननी कब अइहैं
पंकिल रावरे पंकज पॉंय की लोचन नीर से धूरि बहइहैं
झंखै मनोरथ की कनियॉं उड़ि जइहैं ओहार कँहार परइहैं
के ए भिखारी क झोरी निहारी न जौ लों मतारी क माया छछइहैं॥२९॥
आन्हर में कनवाँ नृप ह्वै जगदम्ब रजाई की बाँधे हौं गाँती
डोलत काँपौं टटोलत मारग बोलत में नटई सहराती
अइसो अघी तुम ते कछु चाहत बाजै सुराग कि गाँडर ताँती
हौ जिय माँहि भरोसा इहै नाहि माई क होइहैं कसाई सी छाती॥३०॥
राखि उछंग निरीह लला को पियावहु प्रान सजीवनि घूँटी
रंक को कीजै निसंक दयामयि चाहत होंन निलाम लँगोटी
नानी घरे ननियउरा बखानत सूझ जुआरिहिं आपन गोटी
हाय दई हम क्यों न भयों महिषासुर के भईंसा की चमोटी॥३१॥
कासों सुनाऊँ दसा अपनी सब भागत जइसे करीं कछु टोना
बइठि कहीं केकरे पजरे अपनी फुटही तकदीर क रोना
कॉंहें न एकहुँ बेर निहारैलू माई उघारि के आँखी क कोना
की अइसैं बितिहैं जिनगी कहिं चाटत जूठ बटोरत दोना॥३२॥
पहिले पोसलू दुलरउलू परी जननी हमरे उदरे बिच पेटी
छाड़ु न पंकिल की बहियाँ बरु मारहु माई दबाई नरेटी
ई दुनियाँ हमरे पर थूकत के हमके अँकवारी में भेंटी
माई सम्हारि के राखा ई भागै न डोमे के धामे बखानल बेटी॥३३॥
आनन फेन बहै मृग बारि में धावत सूझै बतास न बेना
का बिधि ह्वै जठरागिनि सीतल बीतल चेट को चारि चबेना
पंकिल आँखिन में पर्यो चन्नर यों ढरकौं लुटिया बिन पेना
आज हुँकारी मतारी भरा फिर ऊधौ क लेना न माधौ क देना॥३४॥
कासे कहौं जिय की जरनी अपने सुख को सपनों भयो फीको
हौ जग रीति इहै जगदम्ब कि माथ निहार के सेन्हुर टीको
कै बजनी पहिर्यौं कछनी पर लाज मरौं नहिं नाचनौ नीको
हौं कितनों बदल्यौं परिवेश गनेश भयों पर गोबर हीको॥३५॥
तूँ अँखिया मुँदबू मतवा तब के हमके बचवा गोहरइहैं
माथै पै हॉथ दे चूमत चाटत ए टुअरा संगे के बतिअइहैं
पंकिल के जनमउलू अकारथ ई घुरफेकन साँझैं बिलइहैं
तूँ जब जोर लगइबू मतारी त ओरी क पानी बड़ेरी सिधइहैं॥३६॥